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________________ १२६ इस कथन समीक्षक ने जितना कुछ लिखा है उसका नमूना हम पूर्व में स्थूल रूप से दिखा हो आये हैं । इससे ही यह सिद्ध हो जाता है कि प्रकृत में उसका जितना भी कथन है वह सब युक्ति, अनुभव और ग्रागम के विरुद्ध तो है ही, लोकविरुद्ध भी है । कथन नं. ७६ का समाधान :- इस कथन में भावलिंग कैसे होता है, इसकी चर्चा में समीक्षक का जो यह कहना है कि "उपादान ही भावलिंगरूप परिणमित होता है" सो यहां यदि वह उपादान के कार्यरूप परिणमन के समय ही चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम स्वीकार कर लेता है तो, दोनों का योग एक काल में ही होता है - यह बात यथार्थ सिद्ध हो जाती है, किन्तु खेद है कि वह सर्वत्र उपादान और निमित्त के योग को एक काल में स्वीकार करने को तैयार: नहीं है। ऐसा लगता है कि वह सम्यक् नियति को स्वीकार ही नहीं करना चाहता और केवल इस सम्यक् नियति के खण्डन करने में ही उसे द्राविडी प्राणायाम करना पड़ रहा है । वाह्य निमित्त को या आभ्यंतर निमित्त को उपचार से सहायक कहना और वात है और उनकी सहायता को यथाथ मान लेना दूसरी बात है । यह तो वह मानता ही है कि निमित्त प्रयथार्थ कारण है, ऐसी अवस्था में उसकी सहायता रूप कारणता यथार्थ कैसे मानी जा सकती है ? भावलिंग में क्षयोपशम की भी यही स्थिति है । चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम निमित्त श्रवश्य है, वह निश्चय कर्ताकारक नहीं । भावलिंग का कर्ताकारक तो अपने स्वरूप में उपयुक्त आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं । अरे भाई ! निमित्त मात्र को अयथार्थं कारण हम नहीं लिख रहे हैं । समीक्षक ने स. पू. ४ में इस बात को स्पष्ट करते हुए स्वयं लिखा है कि " और निमित्तकारणभूत उदय पर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्म में स्वीकृत निमित्त कारणता, अयथार्थ कारणता और उपचरित कर्तृत्व व्यवहारनय के विषय हैं' इसलिये यह सिद्ध हो जाता हैं। कि निमित्त मात्र उपचार से ही सहायक कहे जाते हैं । उनकी उपचरित सहायता को यथार्थ कहना स्ववचन बाधित होने से किसी भी विवेकी की दृष्टि में मान्य नहीं हो सकता । कथन नं. ८० का समाधान :-- इस कथन में आगम के विवक्षित कथन को उपस्थित कर समीक्षक ने अपना यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि- "निमित्त तथा उपादानरूप उभय कारणों से ही कार्य होता है और निमित्त हेतु कर्ता भी होता है, अतः शब्दों में तो आपने उसे ( निमित्त को) इन्कार नहीं किया, किन्तु मात्र शब्दों में स्वीकार करते हुए भी आप निमित्तभूत वस्तु में कारणत्वभाव स्वीकार नहीं करते हैं तथा निमित्त को अकिंचित्कर बतलाते हुए मात्र उपादान के अनुसार हीं अर्थात् एकान्ततः उपादान से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं । श्रागम के शब्दों को केवल निबाहने के लिये यह कह दिया गया कि निमित्त की प्राप्ति उपादान के अनुसार हुआ करती है, ताकि यह न समझा जाय कि आगम माननीय नहीं है । इस एकान्त सिद्धान्त की मान्यता से यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्त कारण मात्र शब्दों में माना जा रहा है, वास्तव में उसे कारणरूप नहीं माना गया हैं ।" यहाँ समीक्षक ने अपने अभिप्राय द्वारा अपने कई मतों को दुहराया हैं, और इस आधार पर वह स्वयं स. पू. ४ में घोषित निमित्त की प्रयथार्थ कारणता को यथार्थ घोपित करने के साथ न केवल
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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