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________________ ११६ - इसतरह कहा जा सकता है कि समीक्षक की "उपादान अनेक योग्यतावाला होता है और बाह्य सामग्री उसे एक योग्यता द्वारा एक कार्य में प्रवृत्त करती है, यह तकरणा असंगत नहीं है।" इसंप्रकार यह जो समीक्षक का कहना है कि उपादान अनेक योग्यतावाला होता है, इसकी सिद्धि उसे स्पष्ट प्रमाण देकर करनी थी; परन्तु आगम में विवक्षित पर्याय विशिष्ट द्रव्य को ही उपादान कहा गया है, ऐसी अवस्था में उपादान अनेक योग्यतावाला होता है, यह सवाल ही नहीं उठता । और इसीप्रकार वाह्य निमित्त का सद्भाव भी कार्यकाल में ही माना गया है, इसलिये वाह्य निमित्त अनेक योग्यतावाले उपादान को एक योग्यता द्वारा कार्य में प्रवृत्त करता है, ऐसा लिखना भी मिध्या है, यह सिद्ध हो जाता है । इस विषय में कर्मशास्त्र का उदाहरण हम पहले दे ही पाये हैं । (५) विकल्प पांच में समीक्षक ने "कालप्रत्यासत्ति" से यह अर्थ फलित किया है कि - "उपादान को जिस काल में जिसप्रकार की निमित्तरूप वाह्य सामग्री का योग मिलता है, उस काल में उस सामग्री के अनुरूप ही उपादान के किसी योग्यता के आधार पर कार्य की उत्पत्ति होती है ।" सो वहाँ वह यदि उपादान का स्पष्ट अर्थ लिख देता तो उसके अभिप्राय को समझने में हमें भ्रम नहीं होता, किन्तु समीक्षक उपादान का क्या अर्थ करता है, इसे स्पष्ट न करके ही जो अपने कल्पित मत का समर्थन करता जा रहा है, सो वह योग्य नहीं है । आगम, तर्क और अनुभव के विरुद्ध है । आगम तो यह है कि विशिष्ट पर्याययुक्त द्रव्य से ही विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति होती है । प्रत्यक्ष से भी हम देखते हैं कि जब मिंट्टी घट पर्याय के सन्मुख पहुंच जाती है, तभी उससे घटपर्यायं की उत्पत्ति होती है। तर्क भी यही कहता है; क्योंकि जब मिट्टी घट पर्याय के सन्मुख होगी, तभी उससे घट पर्याय की उत्पत्ति होगी। १४वें गुणस्थानवी जीव भी जव सिद्धपर्याय के सन्मुख होता है, तभी सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति होती है, इसलिये समीक्षक ने जो अपनी कल्पित वात को आगम, तर्क और अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और लोकव्यवहार से सिद्ध लिखा है, वह सब मिथ्या प्रतीत होता है। उसे सबसे पहले अपने पक्ष के समर्थन में पागम उपस्थित करना चाहिये था और उसके बाद ही अनुभव, तकं आदि को भी अपने मत की पुष्टि में उपस्थित करना उचित होता । विशेप क्या लिखें? कथन नं. ६७ का समाधान :-समीक्षक ने प्रेरक और उदासीन निमित्तों के आधार पर अपने मत के समर्थन का उपक्रम किया है, सो इस संबंध में हम इसके पहले के ही कथन में विस्तार से स्पष्टीकरण कर आये हैं । सो यहाँ पुनः उसको दुहराना पीसे को पुनः पीसने के समान होता है। कथन नं. ६८ का समाधान :-यहां पर हम इतना ही संकेत करना पर्याप्त समझते हैं कि त. च. पृ. ६७ में हमने हरिवंशपुराण के श्लोक का जो अर्थ लिखा है, वही उपयुक्त है, क्योंकि समीक्षक के सुझाव के अनुसार यदि हम कार्य के स्थान में कर्मवन्ध अर्थ लेते हैं तो इससे पर के कर्तृत्व का प्रसंग उपस्थित होता है, जो इस श्लोक में हरिवंशपुराणकार को इप्ट नहीं है । ऐसा यहां समझना चाहिये। • कथन नं. ६६ का समाधान :-इस कथन में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "पूर्वपक्ष के सामने पराश्रित जीवन के समर्थन का प्रश्न नहीं है, सभी मानते हैं कि पराश्रित जीवन अच्छा
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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