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________________ १२० नहीं है" सो उसका ऐसा कहना जहां उचित प्रतीत होता है, वहीं उसके द्वारा उपादान को अनेक योग्यतावाला मानकर निमित्त के वलपर एक योग्यता द्वारा कार्य की उत्पत्ति मानना, यह पराश्रित जीवन का समर्थन नहीं तो और क्या है ? इस द्वारा वह वाह्य निमित्त को परमार्थ से कारयिता बना देता है, इसका वह स्वयं विचार करे। आगे समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "वस्तु में पड्गुण हानिवृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमनों से अतिरिक्त उपादानगत सभी स्व-पर प्रत्यय परिणमन निमित्तभूत वाह्य सामग्री के संयोग से ही हुना करते हैं ।" सो उसके ऐसे कथन से मालूम पड़ता है कि वह पड़गुण हानिवृद्धिरूप परिणमन को एकान्त से परनिरपेक्ष ही मानता है। इस विपय में हम पिछले दौरों में बहुत कुछ स्पष्टीकरण दे आये हैं। यहाँ हम उसको यही सलाह देंगे कि वह गो. जीवकाण्ड में श्रुतज्ञान प्ररूपणा को पढ़ लेवें। उससे यह ज्ञान हो जावेगा कि पड्गुण हानिवृद्धिरूप परिणमन स्व-परप्रत्यय भी होता है और स्वप्रत्यय भी होता है। जो स्वभाव परिणमन होता है, वह स्वप्रत्यय ही होता है और जितना विभाव परिणमन होता है, वह स्व-परप्रत्यय ही होता है । इसके लिये नियमसार गा. १४ और २६ पर अवश्य दृष्टि डालनी चाहिये। आ० कुन्दकुन्ददेवने स्वभावपर्याय और विभावपर्याय को बहुत ही प्रांजल शब्दों में स्पष्ट किया है। देखो - नियमसार गा. १४ और २६ । इसकी टीका में प्रा. पद्मप्रभ मलधारिदेव लिखते हैं : परमाणुपर्यायः पुद्गलस्य शुद्धपर्यायः परमपारिणामिकभावलक्षणः वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूपः अतिसूक्ष्मः अर्यपर्यायात्मकः सादि सनिधिनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्ध सद्भूतव्यवहारात्मकः अथवा हि एकस्मिन् समयेऽप्युत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकत्वात् सूक्ष्मऋजुसूत्रनयात्मकः।। परमाणु पर्याय पुद्गलद्रव्य की शुद्ध पर्याय है, वह परम पारिणामिक भाव लक्षणवाली होकर वस्तुगत षटगुणहानि-वृद्धि से युक्त है और अति सूक्ष्म अर्थ पर्यायस्वरूप सादि-सनिधन होकर भी परद्रव्य निरपेक्ष होने से शुद्ध सद्भूत व्यवहारस्वरूप है। अथवा एक ही समय में उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यस्वरूप होने से सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय स्वरूप है। ___ इससे हम जानते हैं कि जितनी भी स्वभावपर्यायें होती हैं, वे सब स्व-पर प्रत्यय न होकर परनिरपेक्ष स्वप्रत्यय ही होती हैं। इसी बात का निर्देश नि. सा. गाथा १४ में किया है। गाथा के उत्तरार्द्ध में पर्याय के दो भेद बतलाते हुए लिखा है - पज्जायो दुवियप्पो सपराबेक्खो परनिरवेक्लो ॥१४॥ पर्यायें दो प्रकार की हैं - स्व-पर सापेक्ष और परनिरपेक्ष । स्वभावपर्याय और विभावपर्याय के भेद जानने के लिये समीक्षक को नियमसार गाथा ११, १२, १३ और उनकी संस्कृत टीका का भी अच्छी तरह अवलोकन कर लेना चाहिये। स्वभावपर्याय परनिरपेक्ष ही होती है, स्व-पर प्रत्यय नहीं ही होती, क्योंकि वह जीवमें पर के लक्ष्य से नहीं होती। स्वभाव का बुद्धि में पालम्बन लेने पर ही होती है।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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