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________________ ११८ के रूप में सहायतारूप कार्य को परमार्थभूत ही मानता है, जैसा कि उसका कहना है - "परन्तु उपादान के कार्य के प्रति निमित्त का कार्य उपरोक्त प्रकार प्रेरक और उदासीन रूप से सहायक होने रूप से यह परमार्थभूत ही है तो वैसा कहना कल्पनारोपित मात्र नहीं है।" यहाँ समीक्षक ने 'परके सहयोग को परमार्थभूत मानकर वह कल्पनारोपित मात्र नहीं है, यह लिखा है ।' सो इसमें संदेह नहीं कि नासमझ को जो ऐसा विकल्प होता है, ऐसा कहना तो परमार्थभूत अर्थात् यथार्थ है। ऐसा कहना कल्पनारोपित मात्र नहीं है, किन्तु उस विकल्प का जो विषय है, वह अयथार्थ है; क्योंकि कार्य के प्रति बाह्य निमित्त के कहने की क्या उपयोगिता है इसे न मानकर समीक्षक अन्य के कार्य में अन्यं द्रव्य वास्तव में सहयोग करता है, यह मानता है ।” सो उसके इस कथन से सभी द्रव्यों को परमार्थ से पराश्रित मानने का प्रसंग पाता है, जो युक्तियुक्त नहीं है । . समयसार गाथा ११ में तो जिस समय आत्मा धर्मादिक द्रव्यों में आत्मविकल्प करता है, उस समय वह उस विकल्प का कर्ता होता है, इतना ही कहा गया है। इसमें धर्मादिक द्रव्यों ने आत्मविकल्प करने में सहयोग किया ऐसी कोई वांत तो दृष्टिगोचर नहीं होती । समीक्षक ने समयसार गाथा ६१ लिखकर जिस वातं का उल्लेख किया है, वह वात इस गाथा में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। 1 गाथा १०५ (समयसार) में जीव ने कर्म को किया, इस विकल्प को उपचरित ही बतलाया है अर्थात् असद्भूत. ही कहा है। इसमें से यह विकल्प परमार्थभूत है, यह.अर्थ समीक्षक ने कहाँ से फलित कर लिया यह, तो वही जाने । गाथा १०६ का भी यही अभिप्राय है। जो वात उपचार से कही गई है, उसे परमार्थभूत कहना यही भ्रम है। गाथा १०७ में भी अन्य द्रव्य अन्य द्रव्य के कार्य को उत्पन्न करता है, इसे भी असद्भूत व्यवहार कहा गया है। यहां पर समीक्षक का कहना है कि - "आत्मा पुद्गल को उत्पन्न करता है प्रादि कथन निश्चयनय से परमार्थभूत न होकर भी व्यवहारनय से तो परमार्थ ही होता है।", इससे ऐसा मालुम पड़ता है कि अभीतक समीक्षक ने निश्चय-व्यवहार की कथनी के भेद को ही ख्याल में नहीं लिया है। यदि वह यह कहे कि यहाँ व्यवहार से मतलव हमारा सद्भूत व्यवहार से है, तब भी हम कहेंगे कि उसने अभीतक सद्भूत व्यवहार और सद्भूत व्यवहार के भेद को ख्याल में नहीं लिया है । अरे भाई ! आगम कहता है कि अन्य अन्य का कार्य करता है, यह अंज्ञानी का कोरा विकल्प है। इसलिये हम तो यही कहेंगे कि जो ऐसे विकल्प को परमार्थ कहता है, वह अपने जीवन को ही मटियामेट करता है । उपचार (असद्भूतव्यवहार) उपचार ही रहता है, वह उपचार से भी परमार्थभूत होने की शक्ति नहीं रखता। प्रयोजन को गौरण कर देने पर उसकी (उपचार की) परिगणना झूठ में ही की जाती है। .. .(४) समीक्षक से पूछा गया कि जब "उपादान अनेक योग्यतावाला होता है, इसलिये वाह्य सामग्री उसे एक योग्यता द्वारा एक कार्य करने में ही प्रवृत्ति करती रहती हैं । इस संबंध में उसका कहना है कि "मैं कहना चाहता हूँ कि यद्यपि विशिष्ट पर्याययुक्त द्रव्य ही कार्यकारी होता है, परन्तु इस विशिष्ट पर्याय की उत्पत्ति बाह्य सामग्री का सहयोग मिलनेपर ही होती है (देखो प्रमेयकमलमार्तण्ड २-२ पत्र-शास्त्र. का. निर्णय.सागरीय प्रकाशन)
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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