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________________ ९८ जाता है। कार्यभेद से उनको दो प्रकार का मानना या फहना नहीं बनता, ऐसा गहना मिथ्या आगे उसने इस सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा है, वह सब उसको अपने घर की मान्यता ही है। कथन नं.४५ का समाधान :-इस कथन में भी समीक्षक ने हमारे कथन का पालोचन करते हुए अन्त में जो यह लिखा है कि "परन्तु निमित्तभूत वाहा सामग्री को लक्ष्यकर - बालंबन कर अर्थात् सहयोग से करता है तो ऐसा स्वीकार करने में भी पूर्वपक्ष को कोई प्रापत्ति नहीं है, लेकिन वास्तव में बात यह है कि उत्तरपक्ष अपने उक्त माथन मे आधार पर उपादान की कार्यरूप परिणति में निमित्त कारणभूत वाह्य सामग्री को सर्वथा अविचितकार मान लेना चाहता है, इसलिये ही पूर्वपक्ष को उसके उक्त कथन में आपत्ति है ।" सो इस सम्बन्ध में पागम पो अनुसार हमारा कहना यह है कि “सामग्री का लक्ष्य कर -पालंबन कर" ऐसा कहना या लिसना माग असद्भुत व्यवहारनय का विण्य है, क्योंकि अचेतन पदार्थों में ऐसा कहना बनता ही नहीं, चेतन पदार्थों में बुनिपूर्वक जो काम होते है उनमें ही यह कहना बनना है । ऐसा होने पर भी समीक्षा निमित्त के सहयोग को भूतार्थ मानने पर तुला हुआ है। वह अपने कथन द्वारा इसकी पुष्टि में पागम पा विपर्याय भी पार रहा है। इतना ही नहीं, प्रेरक कारण का अपने मनोनुकूल अयं करके यह भी लिाने से नहीं पता कि प्रेरक कारण के बलपर अन्य द्रव्य का कार्य प्रागे-पीछे भी हुमा करता है। यह तो उसकी एमा महाभूल है ही, इसके आगे वह और भी ऐसी महाभूलें करने से नहीं चूकता, जिनके प्राधार पर यह अपने मनोनुकूल उपादान का लक्षण लिखकर पूरे प्रागम को ही मटियामेट कर देना चाहता है।। वह यदि यह मानता है कि निश्चय का एकान्त कर रहे हैं तो उसका काम इतना ही था कि वह हमारे उस निश्चय कथन को स्वीकार करके उसका सद्भुत और असद्भूत व्यवहार क्या होता है और वह लोक में और पागम में क्यों प्रयोजनीय माना गया है, इस पर विशद प्रकाश डालता; परन्तु वह ऐसा करने में सर्वथा असमर्थ रहा। न तो वह निश्नय का ही समर्थन कर सका और न सद्भुत और असद्भूत व्यवहार को ही स्पष्ट कर सका। निश्चयनय के स्वीकार करने के साथ दोनों व्यवहारों के कथन में संगति कसे बैठती है, यही उसके लिसने का मुख्य प्रयोजन था। यथासंभव हमने इसका ख्याल रखा है। समीक्षक किस वहाव में वह गया, यह हम अभीतक नहीं जान सकें। (स. पृ. १२५-२६) ___ समीक्षक का कहना है कि "यदि निमित्तभूत वाह्य सामग्री को ऐसी हालत में भी उपादान के कार्यरूप परिणति में सर्वथा अकिंचित्कार माना जाता है, तो उस निमित्तभूत वाह्य सामग्री के अभाव में उपादान का कार्यरूप परिणत होने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा, जा उत्तरपक्ष को भी मान्य नहीं है ।" सो इस सम्बन्ध में पागम के अनुसार समीक्षक को यह जान लेना चाहिये कि कालप्रत्यासत्ति के आधार पर निमित्त में अन्य द्रव्य के कार्य की असद्भूत व्यवहार से निमित्तता स्वीकार की गई है। अन्य द्रव्य के कार्य में वह भूतार्थ से सहायक होता है, इस आधार पर निमित्तता नहीं स्वीकार की गई है और कालप्रत्यासत्ति के आधार पर ही उन दोनों के एक काल में होने का नियम
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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