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________________ कार्यभेद की अपेक्षा प्रेरक मानकर उपादान के कार्य को निमित्त के बल पर आगे-पीछे होते हुए लिखना, यह ऐसी खोटी मान्यता है, जिससे यह ध्वनित होता है कि उपादान को परिणमाना यह निमित्त का कार्य है । उपादान तो अपने कार्य को करने में प्राकाशफूल के समन अकिचित्कर ही है । परन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। सभी कार्य हो रहे हैं और अपने-अपने समय में हो रहे हैं। कोई किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, फिर भी वे क्रमानुपाती होने के कारण, जिसके कार्य के साथ तद्भिन्न अन्यं द्रव्य के कार्य की बाह्य व्याप्ति वन जाती है, वह उस कार्य का निमित्त कहा जाता है। अव यदि परिणाम लक्षण या परिस्पंद लक्षण क्रिया द्वारा जो निमित्त होता है, वह उदासीन निमित्त कहलाता है और बुद्धिपूर्वक परिस्पंद लक्षण क्रिया द्वारा जो निमित्त होता है, उसमें निमित्तकर्ता, हेतुकर्ता आदि शब्दों का व्यवहार किया जाने लगता है (देखो समयसार गाथा १००) इतना अवश्य है कि निमित्तपने की अपेक्षा कोई भी निमित्त हो, वह उपादान के कार्योत्पत्ति के प्रति उदासीन ही होता है । (स. पृ. १२६-१२७) समीक्षक ने अपने मतानुसार प्रेरक निमित्त की कल्पना अवश्य की है और उसकी पुष्टि में वह आगम की दुहाई भी देता है, जिसके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि प्रेरक निमित्त के वलपर अन्य द्रव्य में आगे-पीछे कभी भी कार्य करा सकता है। किन्तु प्रागम में अन्तःकृतकेवलियों के उदाहरण आते हैं । प्रत्येक तीर्थकर के काल में ऐसे अन्त कृतकेवली दस-दस होते हैं । मोक्ष जाने के पहिले घोर उपसर्ग होने पर भी वे अपनी अनपवयं आयु के अन्त में ही मोक्ष जाते हैं । ऐसा नहीं होता कि वे आयुकर्म को छेद करके मोक्ष जाने के काल के पूर्व ही मोक्ष चले जायें । अब रहे शेष जीव, सो उनके भी परभव सम्बन्धी आयुबन्ध के बाद भुज्यमान आयु का छेद नहीं होता, ऐसा जिनागम से स्पष्ट ज्ञात होता है। इसलिये आगम से ऐसा सिद्ध करना अशक्य है कि प्रेरक कारण के वल से द्रव्याथिकनय की अपेक्षा एकान्त से स्वीकार किये गये उपादानरूप द्रव्य में किसी भी कार्य का आगे-पीछे होना संभव है। अज्ञानी ऐसा विकल्पं अवश्य कर सकता है कि जो कार्य दो दिन में होना था, उसे एक दिन में कर लिया। उससे यदि पूछा जाय कि यह काम दो दिन में होना था, यह तुमने कैसे जाना ? तो वह इसका क्या उत्तर देगा, क्योंकि उसके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है, इसलिये अज्ञानवश वोले गये वचनों के प्रयोग भेद से निमित्त को दो प्रकार का कहना तो वन - - 1. परभविग्राउएबद्ध पच्छा भुजमारणाउअस्स कदलीघादो पत्थि जहा सरूवेण चेव वेदेदित्रि जाणावरणटठं कमेण कालगदोत्ति उक्तं । परं भवियाउसंबंधिय मंजमाणाउए धादिज्जगो को दोतो तिमोण, रिणज्जिण्ण मंजमाणाउअस्स अपत्तवरभविभाउस्स उदयस्स चउगहबाहिरस्स जीवस्स अभावपसंगादो । घ. पु. १० पृ. २२७ ... जघा पाणावरणादिसमयपवद्धाण बंधावलिय वदिक्कतारणं प्रोकहुहुण परपयाडिसंक भेदिबाधा अत्थि, तथापाउअस्स ओकदुण-परपयडिसंकमादीहि वाधाभवपरूवरणविदियवार मावाधाणिकेसादौ । स. जी. चू पृ. १६८
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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