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________________ स्वीकार किया गया है, इसलिये "निमित्तभूत बाह्य सामग्री के अभाव में भी उपादान का कार्यरूप परिणत होने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा" यह सवाल ही नहीं उठता। उसके इस सवाल को देखकर ऐसा लगता है कि वह इन दोनों में पागमसम्मत कालप्रत्यासत्ति को स्वीकार ही नहीं करना चाहता, अन्यथा वह ऐसा सवाल ही नहीं उपस्थित करता । (स. पृ. १३०) प्रत्येक कार्य में जो वैशिष्ठ्य आता है, वह द्रव्य की अपनी द्रव्य-पर्याय की योग्यता के वलपर ही आता है । जव प्रेरक कारण नाम का कोई निमित्त ही नहीं है, तब उस आधार पर - उसके वलपर अन्य द्रव्य के कार्य में वैशिष्ठ्य की कथा करना आगमानुकूल नहीं कही जा सकती है । इसका विशेष खुलासा हम पहिले कर ही आये हैं । कथन नं. ४६ का समाधान :-आगे समीक्षक पुनःप्रेरक निमित्त की वकालात करते हुए लिखता है कि "मैं इसी प्रश्नोत्तर की द्वितीय दौर की समीक्षा में इस सम्बन्ध में विस्तार से यह स्पष्ट कर आया हूँ कि प्रेरक निमित्त के बल से उपादान शक्ति विशिष्ट किसी भी द्रव्य के कार्य को आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है।" सो इस सम्बन्ध में हमें इतना ही कहना है कि उसने जिस रूप में उपादान को स्वीकार कर रखा है, उसका उभयनय के प्रतिपादक आगम से समर्थन नहीं होता, क्योंकि कार्य कारण के प्रसंग में केवल पर्यायनिरपेक्ष द्रव्यशक्ति विशिष्ट द्रव्य स्वयं अपना कार्य करने में असमर्थ है, क्योंकि प्रतिसमय पर्यायशक्ति विशिष्ट द्रव्य ही प्रतिसमय अपने कार्य का उपादान होता है - ऐसा वुद्धिगम्य आगम वचन है । अतः लोक में ऐसा कोई भी निमित्त कारण नहीं है, जो अपने से भिन्न द्रव्य के कार्य को आगे-पीछे उत्पन्न कर दे। कथन नं.४७ का समाधान :-समीक्षक "कर्म की नानारूपता भावसंसार के उपादान की नानारूपता को तथा भूमि की विपरीतता वीज की वैसी उपादानता को ही मूचित करती है" सो यह जो हमारा कहना है, उसे स्वीकार करके भी पुनः वह लिखता है कि "परन्तु विचारणीय यह है कि ऐसी सूचना तभी प्राप्त हो सकती है। जव कि कर्म को भावसंसार की उत्पत्ति में और नमि की विपरीतता को वीज की विपरीत परिणति में सहायक होनेरूप निमित्त मान लिया जावे।" सो यहां ऐसा समझना चाहिये कि बुद्धि के क्षेत्र में ही यह विकल्प होता है, किन्तु प्रत्येक वस्तु का परिणमन स्वयं होता है । दोनों का सहज योग होता है ऐसा स्वीकार करना ही कार्यकारी है। लोक में अनन्त पदार्थ हैं और उनके अनन्त प्रकार के कार्य हो रहे हैं। और उनके लिये अनंत प्रकार के योग भी मिलते रहते हैं। इन कार्यों में कौन किसको सूचना देता है। यह बात तो शास्त्रीय मीमांसा के समय ही कही जाती है। वस्तुतः सभी के अपने-अपने परिणमन स्वतंत्र हैं, कोई किसी के प्राधीन नहीं हैं। योग भी स्वयं वनते रहते हैं, उन्हें कोई बनाता नहीं। फिर भी अन्य के सहयोग से कार्य हुआ, ऐसा कहना या मानना असद्भूत व्यवहार ही है। उसे भूतार्थ कहना यही भूल है। कथन नं.४८ का समाधान :-खा. त. च. पृ. ६२ में जो चर्चा पायी है, उसके सम्बन्ध में समीक्षक का स. पृ. १३३ में कहना है कि "जब उपादान को अपनी विवलित कार्यत्प परिणति
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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