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________________ ६१ कर्त्ता न होकर उसमें कर्तापने का प्रयोजनवश श्रारोप किया जाता है । यह परमार्थ को न जाननेवाले अज्ञानियों का लोकव्यवहार ही है । यद्यपि ज्ञानीजन भी प्रयोजनवश ऐसा व्यवहार करते हैं और श्रागम में भी इसे स्वीकार किया गया है, पर ज्ञानीजन उसे उपचार कथन जानकर ही स्वीकार करते हैं और श्रागम में इष्टार्थ के समर्थन में साधक जानकर प्रयोजनवश यत्र-तत्र इसका उल्लेख भी किया गया है । देखो समयसार गाथा ८४ से ८६ श्रौर उनकी श्रात्मस्याति टीका ( स. पू. ११३) : . आगे समीक्षक ने खा. त. च. पृ ५४ में हमारे द्वारा कर्ता का जो सप्रमाण लक्षरण दिया है, सो हमने वह इस अभिप्राय से दिया था कि जब एक वस्तु के दो कर्ता होते ही नहीं, ऐसी अवस्था में उसे कर्ता का सामान्य लक्षरण भी जानना चाहिए और विशेषरूप से भी कर्ता का लक्षरण जानना चाहिए । समीक्षक भी इसे समझता है, फिर भी वह निमित्त कर्ता को प्रयथार्थ कर्ता मानकर भी उसे कार्यरूप परिणति में यथार्थ सहायक रूप में मानने की अपनी मान्यता को नहीं छोड़ना चाहता । मानना ही नहीं चाहता कि जो प्रयथार्थ कर्ता होगा वह परमार्थ से कार्य में कुछ भी सहायता नहीं करेगा, श्रन्यथा उसे प्रयथार्थ कर्ता कहना उपयुक्त नहीं होगा । हम यहां इतना अवश्य खुलासा कर देना चाहते हैं कि समीक्षक भले ही निमित्त कर्ता को अयथार्थ कर्ता लिखता रहे, परन्तु हम ऐसा कभी भी नहीं लिखेंगे, क्योंकि प्रयोजनवश जव बाह्य वस्तु में निमित्त कर्ता का व्यवहार करते हैं तो उसे उपचरित कर्ता कहना ही योग्य ठहरता है, अयथार्थ कर्ता कहना योग्य नहीं ठहरता, क्योंकि यथार्थ वचन में और उपचरित वचन में यही अन्तर है कि उपचरित वचन को प्रसद्भूत व्यवहारनय से कथंचित् सत्य मान लिया जाता है, जब कि प्रयथार्थ वचन लोक में सर्वथा श्रयथार्थ हो माना जाता है । ( स पृ. १५३-१५४ ) श्रागे समीक्षक ने अन्य जितना कुछ लिखा है उसका उक्त कथन से ही समाधान हो जाता है, इसलिए उस विषय में विशेष ऊहापोह करना प्रयोजनीय न जानकर हम इस कथन से विराम लेते हैं । कथन नं. ३८ का समाधान - प्रमेयरत्नमाला समुद्देश ३ सूत्र ५३ के वचन को लेकर समीक्षक ने जो निमित्त कारणों को अपने ढंग से वास्तविक सहायक लिखा है, सो वह ढंग क्या है यह वह नहीं लिखना चाहता । श्रागम में कहीं भी "अपना ढंग " यह वचन दृष्टिगोचर नहीं होता । आगम से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि वाह्य व्याप्तिवश वाह्य निमित्त में विवक्षित कार्य के प्रति निमित्तता स्वीकार की जाती है, परमार्थ से वह निमित्त नहीं होता । यह भी उसमें ग्रागम से जात होता है कि उपचार कथन का अर्थ है प्रयोजनवश किया गया कथन। जो कथन असत् होकर के भी प्रयोजनवश ग्रसद्भूत व्यवहारनय से कथंचित् सत्य मान लिया जाता है, उसके लिये प्रयोग किया जाता है । ( स. पू. १५५ ) हमने खा. त. च. पृष्ठ ५५ में जो यह लिखा है कि "यह तो अपरपक्ष भी स्वीकार करेगा कि एक द्रव्य में एक काल में एक ही उपादान - कारण धर्म होता है और उस धर्म के अनुसार वह अपना कार्य भी करता है । जैसे कुंभकार जव अपनी क्रिया और विकल्प करने रूप कारण धर्म बनता है, तब वह अपनी क्रिया और विकल्प करता है, मिट्टी में घट निप्पत्ति रूप क्रिया नहीं करता ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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