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________________ रखकर श्री भट्टाकलंकदेव ने मीमांसकों के ऊपर दोप का उद्भावन करते हुए यह वचन कहा है, किन्तु समीक्षक इसे अपने मत के समर्थन में मानकर पद-पद पर इसे उद्धत व.रता रहता है, इसका हमें खेद है । जनदर्शन में उपादान न सर्वथा नित्य वस्तु स्वीकार की गई है और न सर्वथा अनित्य ही, किन्तु नित्यानित्यात्मक वस्तु ही उपादान के योग्य मानी गई है। यदि मीमांसक भी शब्द को कथंचित् नित्यानित्यात्मक मानकर उपादान की कोटि में रखता तो निश्चित था कि भट्टाकलंकदेव को इस दोप के उद्भावन करने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता; फिर भी समीक्षक अपने मत के समर्थन में इस वचन को बार-बार उद्धृत करता रहता है, यह प्राश्चर्य की बात है। (३) आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड के पृ. १७८ में "यच्चोच्यते" इत्यादि वचन द्वारा जो वाह्य निमित्त का उल्लेख किया है, सो वह असद्भूत व्यवहारनय से ही किया है और असद्भूतव्यवहारनय से प्रयोजनवश ऐसा कहना आपत्ति योग्य नहीं माना गया है (देखो कथन नं. ३६ का स्पष्टीकरण) (४) आ. विद्यानन्द ने तत्वार्थ श्लोकवातिक पृ. १५१ में जो "व्यवहारनयसमाश्रयणे" इत्यादि वचन कहा है, सो वह नैगमनय की अपेक्षा से व्यवहारसत्य को ध्यान में रखकर ही कहा है। संग्रहनय और ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा देखने पर तो कल्पना को छोड़कर किसी का किसी के साथ सम्बन्ध वन ही नहीं सकता, इसलिये निमित्त-नैमित्तिक-भाव को कल्पना का विषय ही जानना चाहिये । यह बात यहाँ स्पष्टरूप से खोल दी गई है। इस प्रकार उक्त चारों कथनों के आधार पर यह निश्चित होता है कि पागम में उपादान और उपादेय भाव के लक्षण अवश्य ही दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु निमित्त-नैमित्तिक भाव के लक्षण कहीं भी नहीं दिये गये हैं, यह जो हमारा लिखना है, वह यथार्थ है। मान बाह्य निमित्त का कथन इष्टार्थ की सिद्धि में साधक अवश्य होता है, इसीलिए प्रयोजनवश उसे पागम में स्वीकार कर लिया गया है । यदि समीक्षक निमित्त कथन का इतना ही अर्थ करता है और इसे ही वह निमित्त की कार्यकारिता स्वीकारता है, तो ऐसा स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है । ___ और यदि वह (समीक्षक) उपादान अपना कार्य करने में पंगु है, इसलिये उपादान और वाह्य निमित्त दोनों मिलकर कार्य करनेरूप परिणामलक्षण और क्रियालक्षण व्यापार करते हैं तो यह आगम विरुद्ध होने से कोई भी आहतमनीषी इसे स्वीकार करने में असमर्थ है । (स. पृ. ११२) आगे समीक्षक ने जल का उदाहरण देकर अपने मत के समर्थन का जो प्रयत्न किया है और साथ ही उसको ध्यान में रखकर जो निश्चय-व्यवहार से उसे घटित करने का प्रयत्न किया है, वह सब प्रयत्न आगमवाह्य होने से स्वीकार करने योग्य नहीं है । (स.पृ. ११२) उपादान कर्तृत्व इसलिये परमार्यभूत है, क्योंकि वह स्वयं परनिरपेक्ष होकर कार्यरूप परिणमता है और निमित्त कर्तृत्व इसलिये अपरमार्थभूत है, क्योंकि वह विवक्षित कार्य का वास्तविक 1. संग्रहऋजुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचित्काश्चत्संबंधोऽन्यत्र कल्पनामात्रात् ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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