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________________ ऐसी अवस्था में कुभकार को घट का कर्ता उपचार से ही तो कहा जायगा।" समीक्षक ने इसे मान्य करते हुए भी लिखा है कि "पूर्वपक्ष को इसमें कोई विवाद नहीं है, वह भी ऐसा ही मानता है इत्यादि ।" अन्त में समीक्षक इस पूरे कथन को ध्यान में रख करके लिखता है कि "यहां पर इतना ध्यान और रखना चाहिये कि कुभकार की उस क्रिया के साथ घट कार्य का जो अन्वय-व्यतिरेक वनता है, वह इस आधार पर बनता है कि कुंभकार की वह क्रिया घटकार्य के प्रति सहायक होती देखी जाती है ।" सो इस सम्बन्ध में ऐसा समझना चाहिए कि कुंभकार की वह क्रिया घटकार्य के प्रति सहायक होती है, यह कथन उपचार मात्र है, परमार्थ नहीं । प्रागे इस सम्बन्ध में समीक्षक ने जो कुछ लिखा है; वह पिष्टपेपण मात्र है, अतः उसे पुनः दोहराना उपयोगी नहीं है। कथन नं. ३६ का समाधान :-धवला पु. १३ पृ. ३४६ के वचन का हमने जो अर्थ किया है, उसे समीक्षक स्वीकार करके भी जो यह लिखता है कि "जिस प्रकार स्वप्रत्यय कार्य स्वप्रत्यय रूप में वास्तविक है, उसी प्रकार स्वप्रत्यय कार्य भी स्व-पर प्रत्यय रूप में वास्तविक ही है, कल्पनिक नहीं।" सो यह ठीक ही है कि जो स्व-पर प्रत्यय कार्य रागादिरूप होते हैं, वे वास्तविक ही होते हैं। इतना अवश्य है कि उनमें जो परप्रत्ययपने से होना माना गया है, वह उपचरित होने पर भी प्रयोजनवश ही स्वीकार किया गया है । सर्वत्र उपचार का अर्थ है कि जो वस्तु जैसी न हो, उसको प्रयोजनवश वैसी कहना या मानना । कथन नं. ४० का समाधान :-खा. त. च. पृ. २० के सम्बन्ध में "मुख्याभावे" इत्यादि वचन को लेकर हमने जो आशय व्यक्त किया था, उसे समीक्षक ने स्वीकार करके भी हमें जो यह सलाह दी है कि “वाल की खाल न निकाले, वक्ता के अभिप्राय को समझे" सो इसके लिए हम समीक्षक के हृदय से इसलिये आभारी हैं कि उसने हमारे द्वारा दिये गये उत्तर को स्वीकार कर लिया है। खा. त. च. पृ. ५६ में जो हमारे "प्रकृत में कार्यकारण भाव का विचार प्रस्तुत है" इत्यादि कथन को स्वीकार करके भी समीक्षक ने हमको लक्ष्य फरके जो यह लिखा है कि उत्तरपक्ष का यह कथन बच्चों जैसा है और पिसे को पीसता है, क्योंकि उसमें हमें विवाद नहीं है। यह सब तो हम स्वीकार करते ही हैं" सो उसका ऐसा लिखना हमें इसलिये बच्चों जैसा खेल लगा, क्योंकि समीक्षक निमित्त कथन को हमारे कथन के अनुसार मानकर भी उसे “वास्तविक" कहने की हठ को नहीं छोड़ना चाहता। यदि वह वास्तविक के स्थान में उसे उपचरित लिखना स्वीकार कर ले तो पूरा विवाद ही समाप्त हो जाय । (स. पृ. ११७) __ आगे वहीं पर हमने जो यह लिखा है कि "प्रत्येक समय में निश्चय पट्कारक रूप से परिणत हुआ प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपना कार्य करने में समर्थ है।" सो इसे अस्वीकार करते हुए समीक्षक लिखता है कि "सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह कथन द्रव्य के प्रतिसमय होने वाले स्वप्रत्ययरूप कार्य के विषय में ही लागू होता है, स्व-पर प्रत्यय कार्य के विपय में नहीं - इत्यादि ।" सो इस सम्बन्ध में ऐसा समझना चाहिये कि आगम के अनुसार चाहे स्वप्रत्यय कार्य हो या स्व-पर प्रत्यय कार्य हो, प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य स्वयं पर निरपेक्ष होकर ही करता है, ऐसा ही आगम है । जनदर्शन के
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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