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________________ निमित्त से शब्द की श्रति तो स्वीकार करता है, फिर भी शब्द में विकृति नहीं मानता। हमें दुःख है कि वह ऐसे वचनों को भी उपस्थित कर अपने मत का समर्थन करना चाहता है। खा. त. चर्चा पृ. ३८५ में जो हमने प्रमेयकमलमार्तण्ड के वचन को उद्धत करके निमित्त कारणता का समर्थन किया है सो वह असद्भूत व्यवहारनय का वचन है । और असद्भत व्यवहारनय से किसी निमित्त कारण को कार्यकारी कहने का अर्थ होता है कि वह वास्तव में कार्यकारी तो नहीं होता, मात्र असद्भूत व्यवहारनय से ऐसा कहा जाता है । (स. पृ. १०५) कथन ३४ के सम्बन्ध में खुलासा:-खा. त. च. पृ. ५३ में समयसार गाथा १०५ की प्रात्मख्याति टीका में आये हुए "स तूपचार एव, न तु परमार्थः" ॥ वाक्य का जो हमने अर्थ किया वही ठीक है । पं. प्र. जयचन्दजी छावड़ा ने भी इस वाक्य का यही अर्थ किया है । क्षुल्लक सहजानन्द (मनोहरजी वर्णी) महाराज ने भी यही अर्थ किया है। श्री प पन्नालालजी साहित्याचार्य ने भी लगभग यही अर्थ किया है । पं. पन्नालाल के शब्दों में फर्क है, किन्तु प्राशय में अन्तर नहीं है, क्योंकि जहां पूर्वोक्त विद्वानों ने विकल्प को उपचार कहा है, वहीं पं. पन्नालालजी ने उक्त प्रकार से कहने को उपचार कहा है । अतः समीक्षक ने "आत्मा द्वारा पुद्गल का कर्मरूप किया जाना यह उपचार ही है" जो यह लिखा है वह उक्त वाक्य का अर्थ नहीं है, क्योंकि उक्त वाक्य के पहिले "परेपामस्ति विकल्पः" यह वचन पाया है । अतएव उक्त वाक्य में आये हुए "स" पद से "विकल्प" इस पद का ही अनुवर्तन होता है । इसीलिये इस पर से समीक्षक को जो अर्थ फलित करना चाहिये था, वह फलित नहीं होता, ऐसा यहां समझना चाहिये । (स. पृ. १०६-१०७) आगे स. पृ. १०७ में समीक्षक ने जो यह लिखा है कि-"उपचरित की स्थिति भिन्न-भिन्न स्थलों में भिन्न-भिन्न प्रकार से निर्मित होती है"ऐसा लिखकर इसकी सिद्ध में उसने तीन हेतु दिये हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है (१) उसका कहना है कि "निमित्तकारण को कार्य के प्रति जो उपचरित कारण कहा जाता है उसमें हेतु यह है कि निमित्त कारण उपादान कारण की तरह कार्यरूप परिणत न होकर कार्योत्पत्ति में सहायक मात्र हुमा करता है ।" (२) "निमित्त कारण को कार्य के प्रति जो उपचरित कहा जाता है, वह पालाप पद्धति के उपचार लक्षण के अनुसार उसमें मुख्य कर्तृत्व का प्रभाव और वास्तविक रूप में सहायक होने रूप से निमित्त कारणता का सद्भाव होने से कहा जाता है।" (३) "पृथ्वी, अग्नि, जल व वायु, इन चारों वस्तुओं को उपचरित वस्तु कहा जाता है, इसका कारण यह है कि ये चारों वस्तुएँ नाना अणुओं के पिण्डरूप होने से सखण्ड हुआ करती हैं तथा सखण्ड होकर भी स्कंघरूप से अखण्ड होती है।" अब आगे इन सब का क्रम से विचार करते हैं। यह हम पहले ही बतला आये हैं कि कार्य के प्रति वाह्य वस्तु में निमित्तता कालप्रत्यासत्तिवश ही स्वीकार की गई है और इसी आधार पर उसमें (बाह्य वस्तु में) . सहायकपने का
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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