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________________ असद्भूत व्यवहार किया जाता है । कार्यरूप परिणति में उसका सहायकं होना वास्तविक नहीं है। यह कहना मात्र असद्भूत व्यवहार ही है कि इसके निमित्त से यह हुआ । अतः समीक्षक का कार्यस्प परिणति में निमित्त को वास्तविक सहायक मानना मिथ्या ही है, ययार्य नहीं है। प्रयोजन के अनुसार निमित्त कहना और बात है और उसे वास्तविक कहना और वात है। (२) समीक्षक ने उपचरित कर्ता का जो यह अर्थ किया है कि "जहां मुख्य कर्तृत्व का अभाव हो और वास्तविक रूप में सहायक होने रूप से निमित्त कारण का सद्भाव हो, वहां उपचार से कर्तृत्व का प्रयोग किया जाता है ।" सो उसका ऐसा लिखना उचित नहीं है, क्योंकि कार्य हो और उसका मुख्य कर्ता न हो और मात्र निमित्त से कार्य हो जाय, ऐसा न कभी हुआ और न होगा ही । आगम के अनुसार जिन कार्यों में बुद्धिपूर्वक निमित्तता स्वीकार की जाती है, उन्हीं कार्यों में निमित्तमात्र में निमित्त कर्तापने का व्यवहार किया जाता है । उदाहरणार्थ समयसार गाथा १०० को आत्मख्याति टीका में घटकार्य के प्रति कुम्भकार को जो निमित्त कर्ता कहा गया है, वह इसी अभिप्राय से ही कहा गया है। वहां मिट्टी है और वर्तमान में वही घटरूप परिणमी भी है, वहां मुख्य कर्ता का अभाव नहीं है ।. मात्र मुख्य कर्ता की अविवक्षा अवश्य है और इसीलिए कुम्भकार के योग और उपयोग में उपचरित निमित्तपने से कर्ता का व्यवहार किया जाता है । पालाप पद्धति का जो "मुख्याभावे सति" इत्यादि वचन है, सो उसका भी आशय प्रकृत में यही समझना चाहिये । बाह्य निमित्त कार्यरूप परिणति में वास्तव में सहायक होता है, ऐसा न आगम का अभिप्राय है और न ऐसा अभिप्राय फलित करना चाहिए। ___ आगे समीक्षक ने जो यह लिखा है कि "जैसे घटोत्पत्ति के प्रति निमित्तकारणभूत कुंभकार घट का मुख्य कर्ता-तो नहीं है, क्योंकि कुम्भकार घटख्य परिणत नहीं होता, फिर भी मिट्टी की घटरूप परिणति में वह वास्तविक रूप में सहायक होता है । अतः उसे घट का उपचरित कर्ता कहा जाता है।" सो यदि आलाप पद्धति के उक्त वचन का यही अर्थ किया जाय तो भी वह आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि आगम के अनुसार कार्य के प्रति बाह्य वस्तु में कालप्रत्यासत्तिवश ही निमित्त व्यवहार किया जाता है, वास्तविक सहायक रूप से नहीं। किन्तु समीक्षक कुम्भकार को कार्य के प्रति वास्त. विक रूप से सहायक मानता है, जिसका अर्थ होता है कि कुम्भकार ही घट की उत्पत्ति का दूसरा उपादान कर्ता है, किन्तु समीक्षक का ऐसा कहना ही आगम की अवज्ञा है।। (३) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये संयोगी कार्य द्रव्य है, मात्र इसीलिये उनको उपचरित कहा गया है । श्लेप सम्बन्ध से इनकी जो उत्पत्ति हुई है, वह "यधिकादिगुणानांतु" सिद्धान्त के अनुसार ही हुई है। इसलिये इनमें कार्यकारण भाव का नियम बन जाता है । समीक्षक ने अन्य जितना कुछ भी लिखा है, वह सब प्रकृत में उपयोगी नहीं है । मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना भी इसी नियम के अन्तर्गत अर्थात् कार्यकारण भाव के अन्तर्गत ही कहा जाता है. । अन्न ही प्राण है यह कहना भी इसी नियम को ध्वनित करता है। कहीं निमित्तनैमित्तिक भाव के कारण, कहीं आधार-प्राधेय भाव के कारण, और कहीं पिगेपणविशेष्य भाव आदि के कारण उपचार की प्रवृत्ति होती है ऐसा यहां समझना चाहिये ।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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