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________________ के अनन्तर समय में मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। वाह्याभ्यन्तर कारणों की समग्रता हो और कार्य न हो, ऐसा नहीं होता। समीक्षक ने अपनी बुद्धि से यह मान लिया है कि १३वें गुणस्थान के प्रथम समय में मोक्षमार्ग की पूर्णता है, जब कि १४वें गुणस्थान के अन्तिम समय में मोक्षमार्ग की पूर्णता होती है । जैसा कि तत्वार्थश्लोकवातिक (मूल) पृ. ७१ में भी कहा है . निश्चयनयाश्रयणं तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्देव मुख्यं मोक्षस्य कारणमयोगिकेवलिचरमसमयतिरत्नत्रयमिति । निश्चयनय का प्राश्रय करने पर. तो जिसके अनन्तर मोक्षकार्य की उत्पत्ति होती है वही . अयोग केवली के अन्तिम समय में रहने वाला रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण है। . समीक्षक १३ वे गुणस्थान के प्रथम समय में रत्नत्रय की पूर्णता होने पर भी मोक्ष की उत्पत्ति न होने का कारण जो प्रतिबंधक का सद्भाव मानता है, सो उसका ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि १३ वें गुणस्थान के प्रथम समय के बाद भी अघातिकर्मों का ध्वंस करने रूप से पूर्ण सम्यक्चारित्र का उदय होता है और तभी रत्नत्रय की पूर्णता बनती है और तभी वह मोक्ष कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है, उसके पहिले नहीं । आगम में यथाख्यात चारित्र को जो पूर्ण कहा गया है, सो वह क्षायिकपने की अपेक्षा ही पूर्ण कहा गया है । वस्तुतः उसकी पूर्णता १४वें गुणस्थान के अन्तिम समय में ही होती है, इसके पहले नहीं। इसलिए "१३ वें गुणस्थान के प्रथम समय में बाधक कारण के होने से मोक्षमार्ग. की पूर्णता होने पर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती हैं" यह जो समीक्षक ने विधान किया है, सो उसका ऐसा लिखना आगम से समर्थित नहीं होने के कारण मनीषियों के द्वारा ग्राह्य नहीं माना जा सकता । (त. श्लो. वा. पृ. ७० मूल) समीक्षक ने धूल मिश्रितः मिट्टी को ख्याल में रखकर अपने पक्ष के समर्थन में जो दूसरा उदाहरण दिया है, वह इसलिये युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि वहां पर जब उपादान का ही प्रभाव है, तो ऐसी अवस्था में यह लिखना कि "यहां प्रतिबंधक कारण का सद्भाव होने से कार्य नहीं हुआ, युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । समीक्षक का कहना तो यह है कि “वाह्याभ्यन्तर सामग्री के रहने पर भी यदि प्रतिबंधक कारण का सद्भाव हो तो कार्य नहीं होता, परन्तु जो उदाहरण उसने उपस्थित किया है, उसमें वह बाह्याभ्यंतर सामग्री की समग्रता दिखलाने में असमर्थ रहा । अतः यह उदाहरणाभास है, इसे अपने मत के समर्थन में उदाहरण मानना किसी भी प्रकार योग्या प्रतीत नहीं होता । आगे समीक्षक ने अष्टसहस्री पृष्ठ १०५ का वचन! उपस्थित कर जो वाह्य वस्तु में कार्यकारिता के समर्थन करने का उपक्रम किया है, वह उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि प्रा. विद्यानन्द ने यह उपालंभ ऐसे सम्प्रदाय को दिया है, जो शब्द को सर्वथा नित्य मानकर भी तालु आदि के 1. तदसामर्थ्यमखण्डयदकिंचित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ?
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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