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________________ को प्रमाण मानकर ही लिखता होगा, अत. हमें दोनों पक्षों के लिये प्रागम के आधार से उपादान के स्वरूप पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। तत्र ऋजुसूत्रनयापरणातावदुपादेय क्षरण एवोपादानस्य प्रध्वंसः" .. .. (अष्ट स. पृ.१०१) ऋजुसूत्रनय की विवक्षा में तो कार्य के क्षण में ही उपादान का प्रध्वंस है। इससे ज्ञात होता है कि अव्यवहित पूर्वयियुक्त द्रव्य का नाम ही उपादान है और अव्यवहित उत्तरपर्याय युक्त द्रव्य का नाम ही उपादेयं है । जैसा कि स्वामी कार्तिकेयानुप्रक्षा में भी कहा है - पुंश्वपरिणामजुत्ते कारणभावेणं वटुंदे दन्न । उत्तरपरिणामजुदं तं च्चिय कज्ज हवे रिणयमा ।। .. उक्त गाथा का अर्थ इसके पूर्व लिखा ही है। इसी तथ्यं को स्पष्ट करते हुए अस्टसहस्रीकारिका ५८ की टीका में यह स्पष्ट रूप से सूचित किया गया है कि उपादान का पूर्वाकार रूप से क्षय ही कार्य का उत्पाद है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि उपादान और कार्य में एक समय का ही भेद है।' ' । इस प्रकार उपादान का लक्षणं सुनिश्चत हो जाने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि जैन शासन में प्रेरक कारण नाम का कोई कारण ही नहीं है। कथन में किसी को प्रेरक कारण कहना और किसी को उदासीन कारण कहना अन्य बात है । ऐसे कथन में प्रयोजन ही दूसरा रहता है । कर्मशास्त्र के अनुसार भी उपादान का यही लक्षण फलित होता है । ., (ख) कर्मशास्त्र के अनुसार उदयावलि में आये हुए कर्म का न तो उत्कर्पण होता है, न अपकर्षण होता है और न सं. मरण ही होता है.। इतना अवश्य है कि अगले समय में मान, माया और लोभरूप परिणाम न होकर यदि आत्मा क्रोधरूपं परिणाम करने वाला है तो उस मान, माया और लोभ कषायरूप कर्म के परमाणु स्वयं ही स्तिवुक संक्रमण के द्वारा क्रोधरूप परिणम जाते हैं और अगले समयं जब प्रात्मा क्रोध कांय रूप परिण मता है, तब क्रोध कायरूप कर्म के परमाणु नियम से उदयरूप रहते हैं । साथ ही उस समय क्रोध कषाय की एक अपवाद को छोड़कर नियम से उदीरणा होती है । जितने भी सप्रतिपक्ष कर्म हैं उनकी निरन्तर यही भूमिका वनती रहती हैं। (ग) आयु कर्म की एक प्रकृति का अन्य प्रकृति में संक्रमण नहीं होता है, इसलिये जब यह जीव वर्तमान प्राय का उपभोग करते हुए परभव सम्बंधी आयु का विभाग में बन्ध करता है, तब उस समय से लेकर शेष भुज्यमानं आयु उसं वध्यमान आयु का भावाधाकाल बन जाता हैं। इसके बाद विष का योग मिलें, हथियार का वारं हो, यहां तक कि श्वासोच्छवास का निरोध होने का भी प्रसंग श्री जोवे तो भी भुज्यमान आयु को जितना काल शेष रहा, उसका क्रमसे उपभोग किये विना उस जीव का मरण नहीं होता। यह एकान्त नियमें हैं । पखंडागम जीवट्ठाण की चूलिका में इस नियम को स्पष्ट करते हुए भगवान पुष्पदंत-भूतवली ने स्वतंत्ररूप से दो सूत्रों की रचना की है। उनमें से प्रथम-सूत्र है ___ आवाधा ॥२४॥ जी. चू. पृ. १६८ ।। . . - १. "उपादानस्य पूर्वाकारण क्षयः कार्योत्पाद एवं"
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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