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________________ स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, तो उससे भी इसी अर्थ की पुष्टि होती है। ग्राम को स्वभाव दृष्टि से यदि देखा जावे तो वह उष्ण काल में ही पकता है, किन्तु उसी को पकाने के लिए उष्ण काल के स्थान पर प्रयोगकृत उष्णता का भी प्रयोग कर लिया जाता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि कालनय की अपेक्षा प्रत्येक कार्य अपने-अपने नियत काल में ही होता है। फिर भी कृत्रिम उष्णता के समान बाह्य निमित्त की अपेक्षा उसी को (काल को गौण कर) अन्य कारण से यह कार्य हुना:- यह कहा जाता है। इसी प्रकार नियतिनय और अनियतिनय का स्वरूप भी समझ लेना चाहिये, क्योंकि नियति: नय में नियत स्वभाव विवक्षित रहता है और प्रतियतिनय में परसापेक्ष स्वभाव विवक्षित रहता है। दोनों सप्रतिपक्ष नययुगल हैं । अतः अस्तिनय और नास्तिनय के इस प्रतिपक्षनय युगल के समान ये दोनों नययुगल भी एक ही काल में, एक ही वस्तु में विवक्षा भेद से लागू पड़ते हैं, यह हम पहले ही शंका एक के तृतीय दौर में पृ. ४५ में स्पष्ट कर आये हैं फिर भी समीक्षक ऐसे स्पष्ट कथन को स्वीकार न कर अपनी ज़िद पर अड़ा हुआ रहकर अपनी गलत मान्यता की पुष्टि में इन सप्रतिपक्ष नय युगलों का उपयोग कर रहा है, इसका हमें आश्चर्य है। आगे स. पृ. ८८ आदि पर समीक्षक ने जितनी भी बातें लिखी हैं, वे सब केवल. ग्रंथ. का कलेवर बढ़ाने वाली ही हैं ! मात्र उनसे जो कर्म के बन्ध होने पर वन्धावली के बाद उत्कर्पण आदि की चर्चा की है, तो ऐसा लगता है कि समीक्षक इस विपय में हमारे कथन को पूरी तरह से स्वीकार करके भी अपना यह आग्रह कायम रखना चाहता है कि "प्रेरक कारण का कार्य किसी भी वस्तु में विना उपादान शक्ति के कार्य को निष्पन्न नहीं करता है, केवल उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तु में होने वाली कार्योत्पत्ति के प्रति प्रेरक कारण का कार्य उस वस्तु को प्रेरणा प्रदान करता है और उदासीन कारण का कार्य उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तु यदि कार्यरूप परिणत होने के लिए तैयार है तो उसे कार्यरूप परिणत होने के अवसर पर अपना सहयोग प्रदान करता है, अर्थात् प्रेरक कारण के योग से कार्य प्रागे-पीछे कभी भी किया जा सकता है और उदासीन कारण यद्यपि कार्य आगे-पीछे तो नहीं करा सकता है, परन्तु वह कार्यरूप परिणत होने के लिए तैयार उपादान को कार्यरूप.परिणति में सहोग प्रदान किया करता है ।" (स. पृ.६०) . प्रकृत विषय में यह समीक्षाक़ का वक्तव्य है। इसे पढ़ने से विचार के लिये ये बात सामने आती है - (१) प्रेरक कारण वस्तु में उपादान की भूमिका में आये विना कार्य को निष्पन्न नहीं करता। (२) प्रेरक कारण उपादान शक्ति युक्त विशिष्ट वस्तु में कार्योत्पत्ति के लिये मात्र प्रेरणा करता है। (३) इस कारण प्रेरक कारण के बल पर कायं आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है। आगे हम तीनों बातों को ध्यान में रखकर क्रम से विचार करते हैं - . १. (क) समीक्षक के उक्त कथन से यह जान पड़ता है कि उपादान शक्ति के विना केवल प्रेरक कारण की उत्पत्ति नहीं होती। अतएव प्रकृत में उपादान शक्ति क्या है, यह विचारणीय हो जाता है.। विचार के लिये हम यह तो मान लेते हैं कि वह जो कुछ भी लिखता है, उसे वह आगम
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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