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________________ - इसका अर्थ है पूर्वोक्त आवाधा काल के भीतर निषेक स्थिति में वाधा नहीं होती। इसका विशेष खुलासा करते हुए उसकी धवला टीका में बतलाया है - जथा रणारणावरणादिसमयबद्धारणं बंधावलिबदिक्कंताणं प्रोकड्डण परपयंडिसंकमेहि बाधा प्रात्थि तथा आऊस्स प्रोकड्डर-परपयडिसंकमादीहि बाधाभावपरूवरण; विदियवाग्माबाधारिणददेसादो। , जिस प्रकार बंधावलि के बाद ज्ञानावरणादि कर्मों के समय प्रवद्धों में अपकर्पण और परप्रकृति संक्रमण के द्वारा बाधा होती है, उस प्रकार आयुकर्म के आवाधकाल के पूर्ण होने तक अपकपण और परप्रकृति संक्रमण आदि के द्वारा बाधा के अभाव का कथन करने के लिए दूसरी वार "आबाधा" इस सूत्र की रचना की है। • इसी अर्थ सूचित करने के लिये २८ नं. का सूत्र पृ. १७१ में आया है, उसका खुलासा करते हुए भी वही बात कही गई है । जो सूत्र २४ में कह पाये हैं। यह तो समीक्षक भी जानता है कि जो अन्तःकृत केवली होते हैं, उनके ऊपर घोर उपसर्ग होने पर भी उनका अकाल मरण नहीं होने से उनकी आयु में निषेधक हानि द्वारा स्थिति नहीं घटती। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वाह्य कारण मिलने पर अपकर्षण द्वारा उन्हीं कर्मों की निषेक हानि द्वारा स्थिति घटती है, बन्धकाल में जो कर्म निकाचित बन्ध, निघत्तिबंध और उपशमकरणरूप बन्ध को प्राप्त नहीं होते। इसप्रकार उपादान और कर्मशास्त्र के इन नियमों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोक में ऐसा कोई भी सामर्थ्यवान वाह्य पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसके बल पर उक्त प्रकार से उपादान अवस्था को प्राप्त हुआ द्रव्य अगले समय में कार्यरूप न परिणम कर आगे-पीछे कभी कार्यरूप परिणमे। मिथ्याज्ञान के बल से कोई ऐसी कल्पना अवश्य कर सकता है। पर ऐसी कल्पना की किसी भी पागम से त्रिकाल में पुष्टि होना संभव नहीं है। इसप्रकार इतने विवेचन से यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि जिसे समीक्षक प्रेरक कारण कहता है वह वस्तु में उपादान शक्ति के विना कार्य को निष्पन्न नहीं करता। :.: . २. समीक्षक का दूसरा कहना यह है कि प्रेरक कारण उपादान शक्ति युक्त विशिष्ट वस्तु में कार्योत्पत्ति के लिये मात्र प्रेरणा करता है । सो यहाँ देखना यह है कि जिस समय उपादान कार्यरूप परिणम रहा है, उस समय वह (प्रेरक कारण) प्रेरणा करता है या उपादान शक्ति जब कार्यरूप नहीं परिणम रही है, तब वह प्रेरक · कारण उसे (उपादान-को ) अपनी प्रेरणा द्वारा कार्यरूप परिणमा देता है । ये दो प्रश्न हैं, आगे इनके आधार से विचार किया जाता है - . . . । (क) जब उपादान कार्यरूप परिणम रहा है, तब अन्य के द्वारा प्ररणा करने का कोई सवाल ही नहीं उठता। उपादान स्वयं कार्यरूप परिणम रहा है - इसी बात को ध्यान में रखकर समयसार गाथा १२१-१२५ की आत्मख्याति टीका में कहा गया है.- . " .. स्वयं परिणममानस्तु न परं परिणमयितारमपेक्षत, नहि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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