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________________ ૭૨ जीवों का पृथिवी अधिकरण है, अजीव जीवों के आधार से रहते हैं और जीवनजीवों के श्राधार से रहते हैं, कर्मों का अधिकरण जीव है, जीवों का अधिकरण कर्म हैं, धर्म-अधर्म और काल का अधिकरण श्राकाश है, इस प्रकार परस्पर की आधारता का व्याघात होता है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकिं व्यवहारनय से अर्थात् प्रसद्भूत व्यवहारनय से उसकी सिद्धि होती है । जो यह सब परस्पर की प्राधारता कही गई है, वह व्यवहारनय अर्थात् असद्द्भुत व्यवहारनय के कथन के बल से सिद्ध होती है । यह व्यावहारिक कथन है कि ग्राकाश में वायु आदि का अवगाह है, क्योंकि श्राधारान्तर की कल्पना करने पर अनवस्था का प्रसंग आता है । परमार्थ से तो श्राकाश के समान वायु आदि भी स्वप्रतिष्ठ ही हैं । यह आधार श्राधेय के भाव के विषय में श्रागम का कथन है । निमित्त नैमित्तिक भाव के विषय में भी इसी प्रकार से समझ लेना चाहिये, क्योंकि श्राधार- श्राधेय भाव निमित्त - नैमित्तिक भाव का एक भेद है | इससे यह सिद्ध होता है कि परमार्थ से प्रत्येक द्रव्य नित्य रहकर भी परिणाम स्वभाव वाला होने के कारण एक पर्याय से दूसरी पर्याय को प्राप्त होता है। इसी को प्रसद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा किंस के निमित्त से यह हुआ, यह व्यवहार किया जाता है । इसीलिये व्यहारनय वाह्य निमित्त एक पर्याय से दूसरी पर्याय का सूचक होने से उसमें उक्त प्रकार का व्यवहार किया जाता है | यह वस्तुस्थिति है । इसी को ध्यान में रखकर समयसार में यह वचन उपलब्ध होता हैनास्ति सर्वोपि संबंधः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्तृकर्मत्व संबंधाभावे तत्कर्तृता कुतः ||२००॥ इस प्रकार परद्रव्य और आत्मा में कोई सम्बन्ध (आधार-आधेय भाव, निमित्त नैमित्तिकभाव, विशेषण विशेष्यभाव आदि ) नहीं है। तब फिर उनमें कर्त्ता - कर्म सम्बंध कैसे हो सकता है ? जहाँ कर्ता-कर्म सम्बंध नहीं है, वहां आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कैसे हो सकता है ? 2' इसलिये जो समीक्षक बाह्य निमित्त को उसके कार्य में व्यवहार से सहायता करने की अपेक्षा निमित्त कारण मानता है, उसका अर्थ होता है कि वास्तव में सहायता तो नहीं करता । वह सहायता करता है, यह कथनमात्र है, जो कालप्रत्यासत्तिवश किया जाता है | : D इस प्रकार इस कथन को ध्यान में रखकर समीक्षक ने अपने प्रयोजन की सिद्धि में जो हेतु दिये हैं, वे निरर्थक जान पड़ते हैं, ऐसा यहाँ समझना चाहिये । अतः उनके आधार से लग-अलग विचार नहीं कर रहे हैं । इतना अवश्य है कि जो प्रवचनसार में कालनय, अकालनय तथा नियतिंनय नियतिनय का कथन दृष्टिगोचर होता है, वहाँ पर इन नयों का किस अपेक्षा से विवेचन किया गया है, इसका स्पष्टीकरण यहाँ पर हम अवश्य कर देना चाहते हैं । यथा - समयसार गाथा ७६ को आधार बनाकर उसकी श्रात्मख्याति टीका में कार्य को तीन प्रकार निरूपित किया गया है | प्राप्यकार्य, विकार्यकार्य और निर्वर्त्य कार्य । इनमें से प्राप्यकार्य का कथन नियत काल की विवक्षा में किया गया है, क्योंकि पर्याय योग्यता के आधार पर प्रत्येक द्रव्य की प्रत्येक पर्याय नियत काल में ही होती है, किन्तु उसी का परसापेक्ष अर्थात् वाह्य निमित्त की अपेक्षा जव कथन करते हैं तो वही पर्याय कालनय से भिन्न पर के निमित्त से हुई कही जाती है । यही कारण है कि वही प्राप्यकार्य पर की अपेक्षा विकार्यकार्य कहलाता है । प्रवचनसार में इन दोनों नयों का जो
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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