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________________ ७३ कथन २ का समाधान:- इस कथन में समीक्षक ने "प्रेरक कारण के वल से किसी द्रव्य में कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है, "यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इसके समर्थन में वह इन तीनों को देता है १. उसका कहना कि प्रवचनसार में श्राश्रमृतचंद्र देव ने जो कालनय और प्रकालनय तथा नियतनय-अनियतनय का कथन किया है, इससे सिद्ध होता है कि प्रेरक कारण के वल से कार्य आगेपीछे कभी भी किया जा सकता है । २. प्रत्यक्ष से भी ऐसा देखा जाता है कि प्रेरक कारण मिलने पर कार्य आगे-पीछे कभी भी हो जाता है । ३. तथा किसी ने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है कि कौन कार्य किसमें कव हो, इन तीनों को वह नियत समय को छोड़कर उसके आगे-पीछे होने में कार्य के अपने पुष्ट प्रमाण मानता है । इस विषय में आगम क्या है, इसका हम सर्वप्रथम उल्लेख कर देना चाहते हैं | तत्वार्थराजवार्तिक अ. ५ सूत्र १२ की व्याख्या करते हुए श्रा. अकलंकदेव लिखते हैं कि आकाश अन्य द्रव्यों का आधार है, यह व्यवहारनय (प्रसद्भूत व्यवहारनय) की अपेक्षा कहा गया है। परमार्थ से देखा जावे तो सभी द्रव्य श्रात्मप्रतिष्ठ ही हैं । इसलिये श्राकाश अन्य द्रव्यों का श्राधार है और अन्य द्रव्य श्रधेय हैं, यह नहीं बनता । जैसे वहां कहा भी है परमार्थतयात्मवृत्तित्वात् ॥५॥ एवंभूतनयादेशात् सर्वद्रव्याणि परमार्थतयात्मप्रतिष्ठात्वादा धाराधेयाभाव: ।" परमार्थ से सभी द्रव्य अपने में ही रहते हैं । ५ । एवं भूतनय के आदेश से सव द्रव्य परमार्थ से आत्मप्रतिष्ठ हैं, इसलिये आधार- श्राधेय भाव का प्रभाव है । तब यह प्रश्न उठा है कि यदि ऐसा है तो परस्पर श्रधार-आधेय भाव का कथन प्राया है । ऐसी अवस्था में सभी द्रव्य श्रात्मप्रतिष्ठ हैं, यह कहना योग्य प्रतीत नहीं होता। इसके उत्तर स्वरूप वहीं लिखा है । - अन्योन्याधारताव्याघात इति चेन्न व्यवहारतस्तत्सिद्धः || ६ || स्यान्मतं यदि सर्वाणि द्रव्याणि परमार्थतया स्वात्मप्रतिष्ठानि, ननु यदुक्तं बायोराकाशमधिकरणं, उदकस्य वायुः पृथिव्या उदकं, सर्वजीवानां पृथिवी, प्रजीवा जीवाधारा: जीवाश्चाजीवाधाराः कर्मणामधिकरणं जीवाः जीवानां कर्मारण, धर्माधर्म काला श्राकाशाधिकरणा इत्येतस्यान्योन्याधारताया व्याघात इति ? तन्न, कि कारणं, व्यवहारतः तत्सिद्ध ेः । सर्वमिदमुक्तं श्रन्योन्याधारत्वं व्यवहारनयवक्तव्यबललाभादेशात् सिद्धयति । व्यावहारिकमेतत् श्राकाशे बातादीनाभवगाह इत्याधारकल्पनायामनवस्थाप्रसंग इति । परमार्थतस्तु श्राकाशवत् वातादीन्यपि स्वात्माधिष्ठानानि । अन्योन्याधारता का व्याघात होता है, ऐसा नहीं है, क्योंकि व्यवहारनय से उसकी सिद्धि होती है || ६ || स्यात् कोई कहे कि यदि सब द्रव्य परमार्थ से आत्मप्रतिष्ठ हैं तो जो यह कहा गया है कि वायु का आकाश अधिकरण है, जल का वायु श्रधिकरण है, पृथ्वी का जल अधिकरण है, सर्व ·
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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