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________________ ७१ होती है, जब कि उत्तरपक्ष मानता है कि - उपादान की कार्यरूप परिणति में सहायक न होते हुए भी बाह्य वस्तु में निमित्तव्यवहार होता है।" सो समीक्षक के इस वक्तव्य पर “विशेषरूप से जव ध्यान देते हैं तो यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि आगम में व्यवहार पद का अर्थ ग्रहण किया गया है, यह समीक्षक को ज्ञात ही नहीं जान पड़ता । यदि ज्ञात है तो वह अपने अभिप्राय की पुष्टि के लिये बदल कर उसका दूसरा अर्थ ग्रहण कर रहा है। .वस्तुतः यहां व्यवहार पद से असद्भूत व्यवहार लिया गया है और यह किसी में तभी घटित होता है, जब एक वस्तु के गुणधर्म का अन्य वस्तु में आरोप किया गया हो.। मात्र कालप्रत्यासत्तिवश जो अन्य द्रव्य, कार्य द्रव्य का अविनाभावी होता है, सूचकपने की अपेक्षा उसमें निमित्त व्यवहार कर लिया जाता है । और सद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा वही कार्य आरोपित करके वाह्य निमित्त का भी कह दिया जाता है । वाह्य निमित्त वास्तव में दूसरे के कार्य में न सहायता करता है और न वह वस्तुतः उसका कारण ही है। कारणपने का तो मात्र उसमें कालप्रत्यासत्ति वश व्यवहार ही किया जाता है । इस प्रकार इतने स्पष्टीकरण से समीक्षक के प्रथम मूल "प्रश्न का जो हमने प्रथम, द्वितीय, तृतीयःदौर में उत्तर दिया है. वह न केवल समीचीन है; अपितु पागम सम्मत भी है। इसलिये समीक्षक जो वारवार:यह; लिखता है कि "यह हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं है" :सो उसका ऐसा वारवार लिखना.केवल पाठकों के मन में-दिशाभ्रम पैदा करना ही जान • पड़ता है, अन्य कोई उसका दूसरा प्रयोजन नहीं जान पड़ता; क्योंकि संसारी प्रात्मा के-विकारभाव और चतर्गति परिभ्रमण में द्रव्य कर्म का उदय एक कालप्रत्यासत्तिवश निमित्त मात्र है, यह जो हमारा प्रारंभिक उत्तर था वह आज भी अक्षुण्ण बना हुआ है.। उसमें बदल करने की कोई जरूरत नहीं है। ___. आगे स..पृ. ८० पर-समीक्षक ने जो.यह ..लिखा है कि "पूर्वपक्ष का इतना कहना अवश्य है कि यद्यपि पुरुषार्थ हीन जीव ही होता है, लेकिन कर्मोदय की सहायता मिलने पर होता है। इसी तरह यद्यपि जीव ही उत्कृष्ट पुरुपार्थी होता है, लेकिन कर्मोदय की मंदता का संयोग मिलने पर ही होता -है" 1.सो.इस विषय में हमारा इतना ही कहना है कि कर्मोदय की तीव्रता-मंदता उसका (कर्म का) अपना परिणाम है और जीव का पुरुषार्थहीन या उत्कृष्ट पुरुषार्थी होना उसका अपना परिणाम है। दोनों द्रव्य स्वतंत्र हैं । वे अपने परिणाम के स्वयं पर निरपेक्ष होकर कर्ता हैं । अविनाभाव सम्बन्धवश असद्भूत व्यवहारनय से ऐसा कहा जावे, पर समीक्षक का उक्त प्रकार का कथन करना परमार्य नहीं है। कर्मोदय और पुरुषार्थः आगे -समीक्षक जो;यह : मानता है कि कर्मोदय की तीव्रता. में होने वाला . पुरुषार्थ प्रात्मकल्याण का कारण है । सो यहःकथन भी परमार्थ को स्पर्श नहीं करता । व्यवहार भी ऐसा नहीं है, क्योंकि कर्योदय की मंदता भी बनी रहे और जीव आत्मकल्याण के मार्ग में न लगें और कर्मोदय की तीव्रता भी बनी रहे और जीव आत्म कल्याण के मार्ग में लगा रहे, क्वचित् कदाचित यह सम्भव है । उदाहरणार्थ गजकुमार मुनिराज के ऊपर घोर उपसर्ग हुया और उनके असाता वेदनीय की तीव्र उदय उदीरणा भी.वनी रही, फिर भी वे अपने आत्मकल्याण के कार्य से च्युत नहीं हुए।
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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