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________________ मानता । फिर भी शब्द जब सुनने में आता है और जब सुनने में नहीं आता • ऐसे उसके मत को ध्यान में रखकर ही आचार्य ने उसे उपालम्भ देते हुए यह कहा है कि "यदि सहकारी कारण शब्द नित्यतारूप इस सामर्थ्य का खंडन नहीं करते तो वे अकिंचित्कर क्यों नहीं हो जाते ?" इस प्रकार समीक्षक पर मत के सर्वथा एकान्त मत के खण्डन में लिखे गये ऐसे वचनों का भी स्वमत के पोषरंग में उपयोग करता है इसका हमें आश्चर्य है । अथवा इसमें श्राश्चर्य की बात ही क्या है, क्योंकि जिसकी युक्ति ही कहीं की ईंट कहीं का रोडा, भानमती ने कुनवा जोडा" को हो गई है, वह आगे चल कर और क्या क्या नहीं लिखेगा, कौन कह सकता है ? - आगे समीक्षक ने स० पृ० ६१-६२ में अन्य जितना कुछ भी लिखा है, वह उपचारनय का श्राश्रय लेकर ही लिखा है, क्योंकि निश्चयनय से जो कुछ कहा जाता है, उपचारनय या असद्भूत व्यवहारनय भी वही कहता है । अन्तर इतना है कि प्रथम का विषय परमार्थमूत होता है और दूसरे का विषय कल्पनाजन्य होता है । हम परमार्थ से यह जानते हैं कि आकाश, आकाश में रहता है और धर्मादि अन्य द्रव्य अपने में रहते हैं, फिर भी आकाश की व्यापकता को देखकर यह कहा जाता है कि आकाश आधार है और अन्य द्रव्य आधेय हैं । यह एक विकल्प है, जो संयोग सम्बन्ध की सृष्टि करता है । आगम में इसी आधार पर आधार-आधेय, निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्ध स्वीकार कर लिये गये हैं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक का " तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्य कारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः ।" इत्यादि वचन को भी इसी आधार पर प्रतीत सिद्ध और पारमार्थिक मान लिया गया है । यदि इस द्विष्ठ सम्बन्ध को सर्वथा पारमार्थिक माना जाता है तो भी किसी भी द्रव्य को अपने गुण-पर्यायपने से उसकी रक्षा स्वतंत्रता की रक्षा ही नहीं हो सकती। इसलिये दो को मिलाकर एक कहना या स्वतंत्र सत्ताक दो में कल्पना के आधार पर एक सम्वन्धं स्थापित करना और वात है और वाह्य दृष्टि से एक क्षेत्र में रहते हुए भी वे अपने-अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को बनाये रखते हैं, यह जानना और बात है । - इसमें समीक्षक किसको परमार्थभूत मानता है, इस का वह स्वयं विचार करे। आगम में तो "अन्यत्र समवायेन व्यपदिश्येत सर्वथा " || इस वचन द्वारा दो द्रव्यों में प्रत्यन्ताभाव ही प्ररूपित किया गया है, इसे समीक्षक भी जानता होगा । स० पृ० ६३ में समयसार गाथा १०७ की समीक्षक ने व्याख्या का यह तात्पर्य प्रस्तुत किया है - "आत्मा पुद्गल कर्मरूप से उत्पन्न नहीं होता या पुद्गल कर्मरूप नहीं होता, पुद्गल कर्मरूप से नहीं बंधता, पुद्गल कर्मरूप मे नहीं परिणमता और पुद्गल कर्मरूप से गृहीत नहीं होता, क्योंकि कर्मरूप से उत्पत्ति, कर्मरूप से रचना, कर्मरूप से बन्ध, कर्मरूप से परिणमन और कर्मरूप से ग्रहरण पुद्गल का ही होता है, तथा श्रात्मा की ये सभी अवस्था श्रात्मा के सहयोग के बिना सम्भव नहीं हैं । अतः श्रात्मा का पुद्गल को कर्मरूप से उत्पन्न करना या बांधना, परिणमाना और ग्रहण करना इनमें सहायक होने रूप से व्यवहारनय का ही कथन निर्णीत होता ।" अव हम देखें कि उक्त गाथा का वास्तविक अर्थ क्या है - "आत्मा पुद्गल को कर्मरूप से उत्पन्न करता है, श्रात्मा पुद्गल कर्म को करता है, आत्मा पुद्गल कर्म को बांधता है, आत्मा पुद्गल कर्म को परिणमाता है और श्रात्मा पुद्गल कर्म को ग्रहण
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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