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________________ ૬૪ है, परिणमन करनेवाला, परिणाम श्रीर परिणमन क्रिया, ये तीनों वस्तुपने की अपेक्षा एक हैं, भिन्न-भिन्न नहीं, इसलिये जब जो परिणमन उत्पन्न होता है, उसरूप वह स्वयं परि म जाता है। इसमें अन्य का कुछ भी हस्तक्षेप नहीं ।" किन्तु इस तथ्यपूर्ण वक्तव्य को श्रमान्य करते हुए समीक्षक (स० पृ० ५६ पर ) लिखता है कि " किन्तु उसी जिनागम में यह भी बताया गया है कि प्रत्येक द्रव्य परिगमन स्वभाववाला तो है, परन्तु उसका कोई परिणमन स्वयं अर्थात् निमित्त कारणभूत वस्तु का सहयोग प्राप्त हुए बिना अपने आप ही हुआ करता है और कोई परिणमन निमित्तकारणनूत वस्तु का सहयोग प्राप्त होने पर ही होता है, अपने श्राप नहीं होता । इसका कारण यह है कि जिनागम में स्वप्रत्यय और परप्रत्यय दो प्रकार के परिणमन बतलाये गये हैं । (देखो - त० सू० प्र० ५ - ७ की स० सि० टीका ) सो समीक्षक का ऐसा मानना श्राँखों में धूल झोंकने के समान है, क्योंकि किसी भी द्रव्य का ऐसा एक भी परिणमन श्रागम में स्वीकार नहीं किया गया है, जिसमें वाह्य और ग्राम्यंतर उपाधि की समग्रता नहीं रहती हो । त० सू० ५-७ सर्वार्थसिद्धि का जो वचन है, वह धर्मास्तिकाय श्रादि तीन द्रव्यों को लक्ष्य में रखकर ही कहा गया है। धर्मादि तीन द्रव्यों की प्रत्येक समय जो स्वभाव पर्याय होती है, वह स्व के अबलम्वन से ही होती है, मात्र इसलिये ही उसकी पड़गुण-हानि - वृद्धिरूप पर्याय को स्वप्रत्यय कहा गया है । पर जब प्रत्येक समय में होने वाली उसी पर्याय में निमित्त की विवक्षा को जाती है तो वही स्वप्रत्यय पर्याय पर सापेक्ष भी श्रभिहित की जाती है, इसका विशेष गुलासा हम पहले ही कर प्राये हैं । इसलिये जिनागम में पर्याय के विभावपर्याय श्रीर स्वभाव पर्याय ऐसे दो भेद तो दृष्टिगोचर होते हैं, पर जैसे दो भेद समीक्षक ने सूचित किये हैं ऐसे दो भेद कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते । सर्वार्थसिद्धि में बाह्य अवलम्वन की प्रविवक्षा और बाह्य प्रवलम्वन की विवक्षा के रूप से पर्यायों के दो प्रकार सूचित किये गये हैं । धर्मादि तीन द्रव्यों का प्रत्येक परिणाम पर के लक्ष्य से नहीं होता, इसीलिये तो उसे स्वप्रत्यय कहा गया है । तथा निमित्त की विवक्षा में उसे परप्रत्यय भी स्वीकार किया गया है । जो प्रसद्भूत व्यवहारनय का विषय होने से यहाँ गोगा है । हमने "प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिरणमन स्वभाववाला है" यह लिखा है, किन्तु समीक्षक यदि इसे स्वीकार नहीं करेगा तो उसकी मान्यतानुसार स्वप्रत्यय परिणमन त्रिकाल में सिद्ध नहीं हो सकेगा, इसलिये यह स्वीकृत करना ही श्रागम सम्मत है कि चाहे स्वभाव-पर्याय हो और चाहे विभाव पर्याय ही क्यों न हो, प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपने परिणाम स्वभाव के कारण परिणमता है । मात्र परलक्षी परिणाम के होने पर तो विभाव पर्याय होती है और स्वलक्षी परिणाम के होने पर स्वभाव पर्याय होती है । समीक्षक ने दूसरे पैरे में जो कुछ लिखा है उसका भी यही समाधान है । समयसार या अन्यत्र जिनागम में परिरणमन स्वभाव के अर्थ में जहाँ भी स्व" या "स्वयमेव " पद आया है, वहां परमार्थ से देखा जाये तो उसका श्रथं "अपने आप " या "अपने भाप ही" होता है, अन्य नहीं, इतना ही यहाँ लिखना पर्याप्त है। असद्द्भुत व्यवहारनय से यह भले ही कहो कि वस्तु का परिणमन पर सापेक्ष होता है । अष्टसहस्री पृ० १०५ का वचन मीमांसक को लक्ष्य में रखकर लिखा गया है, क्योंकि मीमांसक शब्द को सर्वथा नित्य मानता है । वह उपादान - उपादेय रूप से उसे परिणामी नित्य नहीं
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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