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________________ . करता है, यह असद्भुत-व्यवहारनय का वक्तव्य है । तात्पर्य यह है कि असद्भूत व्यवहारनय से लोक में जो यह भाषा बोली जाती है कि एक द्रव्य ने दूसरे द्रव्य का कार्य किया, एक द्रव्य ने दूसरे द्रव्य को परिणमाया, एक द्रव्य ने दूसरे द्रव्य के कार्य को उत्पन्न किया, एक द्रव्य ने दूसरे द्रव्य को बांधा, आदि वे सब कथन परमार्थभूत नहीं हैं ।. हमारे कथन की उपयोगिता: "हमने जो खा० त० च० पृ० ३८ में "अध्यात्म में रागादि को पौद्गलिक बतलाने का कारण"इस शीर्षक के अन्तगर्त जो आगमानुसार पृ०३८ से ४१ तक तत्त्व प्रस्तुत किया है,वह इसीलिये उपयोगी और सार्थक है, क्योंकि हमें भय था कि समीक्षक-इस विषय में अपना यह मत दोहरा सकता है कि कर्मोदय की सहायता से प्रात्मा रांगादिरूप परिणमता है, इसलिये प्रा० कुन्दकुन्द देव ने रागादि को पौद्गलिक कहा है.। और उसने अपना यह मत स० पृ० ६४ में इन शब्दों में व्यक्त भी किया है - "लेकिन इस विषय में इतना मतभेद है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुद्गल को जीव की उनरूप परिणति में नियम से सहायक होने.रूप से कार्यकारी नहीं मानता तथा उसे अकिंचित्कर बतलाता है।" समीक्षक ने "ट" विभाग के अन्तर्गत स० पृ० ६५. में अपना यह अभिमत प्रगट किया है कि - "इसके विषय में मेरा कहना है कि रागानुभूति से पृथक् शुद्ध आत्मानुभूति ११वें गुणस्थान से पूर्व किसी भी जीव को होना संभव नहीं है, क्योंकि १० वें गुणस्थान तक जीवों के प्रकृति और प्रदेश बंध के अलावा स्थिति और अनुभाग 'बन्ध भी होता है । यह बन्ध इस बात को बतलाता है कि वहां रागानुभूति-से पृथक् शुद्ध प्रात्मानुभूति का होना संभव नहीं है। इस प्रकार पूर्व पक्ष एक ओर तो.अपना उक्त अभिप्राय व्यक्त करता है और दूसरी ओर वह (ज) विभाग के अन्तर्गत यह भी लिखता है कि "पूर्वपक्ष को उत्तर पक्ष के इस कथन से भी विरोध नहीं है कि "पारमार्थिक -भाव को ग्रहण करने वाले शुद्ध निश्चयनय के विषयभूत चिच्चमत्कार'ज्ञायक स्वरूप आत्मा के लक्ष्य से उत्पन्न हुई आत्मानुभूति में उनका भान नहीं होता; इसलिये ये रागादिभाव जीव के नहीं - ऐसा समयसार गाथा ५० से५६ तक की गाथाओं में कहा गया है तथा इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए उक्त गाथाओं की टीका में । 'आ० अमृतचंद्र देव ने जो कुछ लिखा है और जिसे उत्तरपक्ष ने अपने कथन में प्रभांगरूप से उघृत किया है, वह भी पूर्वपक्ष को मान्य है ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्वपक्ष के परस्पर विरोधी पूर्वोक्त दो वक्तव्य हैं। उनमें से प्रथम वक्तव्य में तो यह स्वीकार किया गया है कि आत्मा में जव राग का सद्भाव नहीं रहता तव११वें 'गुणस्थान में शुद्ध आत्मानुभूति होती है । और दूसरे वक्तव्य में हमारे समान यह भी स्वीकार कर लिया है कि जीव में रागादि रूप पर्याय के रहते हुए भी ज्ञायकस्वभावात्मा के अवलम्बन से शुद्ध प्रात्मानुभूति के होने में कोई बाधा नहीं पाती। इससे साफ जाहिर होता है कि समीक्षक अभी तक यह 'निर्णयन्ही नहीं कर पाया है कि परनिरपेक्ष मोक्षमार्ग क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है। साथ ही वह यह भी निश्चय नहीं कर पाया है कि चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्वादि तीन और अनन्तानुवंधी चार, इन सात के उपशम,क्षय, क्षयोपशम के होने पर जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, वह स्वभाव : पर्याय है-या नहीं। और-यदि स्वभाव -पर्याय है तो उपयोग में किसका पालम्वन लेने पर वह .. -होती है। हमारी समझ से समीक्षक इसी विमूचन में पड़ा हुआ है.और इसीलिये वह यह निर्णय नहीं
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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