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________________ ६३ अपना कार्य हाथ का हिलना आदि व विकल्प का करना रूप क्रिया मिट्टी से अलग रहकर ही करना है । मिट्टी स्वयं स्वतंत्ररूप से कुम्भकार की योग और उपयोग रूपं क्रिया से अलग रहकर ही घटकार्य को उत्पन्न करती है । इस प्रकार मिट्टी और कुम्भकार इन दोनों के स्वयं स्वतंत्र होने के कारण एक काल में दो द्रव्य स्वतंत्ररूप से स्वयं एक दूसरे की अपेक्षा किये बिना दो काय उत्पन्न करते हैं । इसलिये परमार्थ से देखा जाय तो वाह्य निमित्त अन्य के कार्य की उत्पत्ति में सहायक भी नहीं हाता । मात्र अद्भूत व्यवहारनय से यह कहा श्रवश्य जाता है कि इसकी सहायता से यह कार्य हुआ । दूसरी बात यह है कि समीक्षक ने जो बाह्य निमित्त के प्रेरक और उदासीन ऐसे दो भेद करके, उनके भिन्न-भिन्न दो लक्षण (स०पू० १३ में ) सूचित किये हैं, वे यथार्थ नहीं हैं:, क्योंकि श्रागम में उपादान और उपादेय का सुनिश्चित लक्षण प्रांजल शब्दों में स्वीकार करते हुए अष्टसहस्री पृष्ठ १०१ में लिखा है "" यद्भावे एव कारणात्मनि पूर्वक्षणवर्तनि सति प्रध्वंमस्य कार्यात्मनः स्वरूपस्य नाभस्तेपीपादांनोपादेयभावोस्तु ।” जिसके होने पर ही जिसका श्रात्मलाभ होता है, वह उपादान है और दूसरा उपादेय है, यदि ऐसा है तो पूर्वक्षणवर्ती कारणरूप प्रागभाव के होने पर कार्यरूपप्रध्वंस का स्वरूप लाभ बनता है, इसलिये उनमें उपादान - उपादेय भाव रह आवे । .* 7 इसी बात को ऋजुसूत्रनय की मुख्यता से अष्टसहस्री पृ० १०० में इन शब्दों में स्वीकार किया गया है ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि प्रागभावस्तावत्कार्यस्योपादानपरिणाम एव पूर्वोनन्तरात्मा ।" ऋजुसूत्रनय की मुख्यता से कार्य का उपादान परिणाम ही पूर्व अनन्तरस्वरूप प्रागभाव है-ऐसा माना गया है । इसप्रकार सुनिश्चित कार्य की विवक्षा में उसका (कार्य का ) सुनिश्चित उपादानरूप लक्षण स्वीकार कर लेने पर न प्रेरक निमित्तों के मानने की कोई सार्थकता रह जाती है और न ही इसी आधार पर समीक्षक ने जो अनेक योग्यतावाला उपादान का लक्षण स्वीकार किया है, उसके मानने की सार्थकता रह जाती है । - इसप्रकार इतने विवेचन को ध्यान में लेने पर यह सुनिश्चित हो जाता है कि जब उपादान स्वयं पर निरपेक्ष होकर अर्थात् आलम्बन की सहायता के बिना ही स्वयं अपना कार्य करता है, तब जिसे हम निमित्त कर्त्ता श्रयथार्थ कर्त्ता आदि कहते हैं, वह स्वयं श्रसद्भूत व्यवहारनय से निमित्त कहलाता है । " एक कथन २३ का समाधान:- हमने खानिया तत्वचर्चा में लिखा था कि जीव ही क्या, प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है, अतएव जिस भावरूप वह परिणमता १. " यथान्तवरूर्व्याप्यः व्यापक भावेन मृत्तिकया कलश क्रिय मागें सम्भवानुकूलं व्यापारं कुर्वाणः कुलालः फलशं करोति तावद्वयव्यवहारः ( समयसार गाथा ८४ प्रात्मख्याति ) www .. वहिर्याप्यं व्यापकभावेन कलश इति लोकाकामनादिरूढोस्ति
SR No.010316
Book TitleJain Tattva Samiksha ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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