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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ जैन तत्त्वमीमांसा की नय को दृष्टि से वस्तु न नवीन है और न पुरानी है किन्तु जैसी है वैसी ही है ! अभिनवभावैयदिदं परिणममानं प्रतिक्षणं यावत् । असदुत्पन्नं नहि तत्सन्नष्टं वा न प्रमाण मतमेतत् ।। ७६७ पंचाध्यायी श्रर्थात् जो सत् प्रतिक्षण नवीन नवीन भावोंसे परिणमन करता है वह न तो असत् उत्पन्न होता है और न सत् विनष्ट ही होता है यहो प्रमाण का पक्ष है। इत्यादियथासम्भव मुक्तभिवानक्तमपि च नयचक्रम् । योज्यं यथागमादिह प्रत्येकमनेकभार संयुक्तम् ७६८ पंचा० अर्थात् इत्यादि अनेक धर्मो को धारण करने वाला और भी अनेक नय समूह जो यहां पर नहीं कहा गया है उसे भी कहे हुये के समान समझना चाहिये । तथा हर एक नय को आगम के अनुसार यथा योग्य अपेक्षा से घटा लेना चाहिये । अन्यथा वस्तु स्वरूप समझ में नहीं आता । उपरोक्त प्रमाण नय निक्षेपों के कथन से व्यवहार नय सर्वथा अभूतार्थ है यह बात खण्डित हो चुकी । क्योंकि व्यवहार नय भी वस्तु स्वरूप के भेदांश का ही प्रतिपादक है अत: यह नय तस्तु के भेद रूप अंश का ज्ञान कराता है। उसी प्रकार निश्चय नय वस्तु के अभेद रूप अंश का बोध कराता है दोनों नग अपने अपने पक्ष के कथन करने में स्वतन्त्र हैं तो भी अपर नय की अपेक्षा अवश्य रखता है तभी उनका कहना सार्थक समझा जाता है अन्यथा नहीं | यह बात ऊपर अच्छी तरह सिद्ध की जा चुकी है दोनों ही नय वस्तु के सर्वांश के प्रतिपादक नहीं हैं। क्योंकि "विकलादेशो नयाः " नय का लक्षण ही ऐसा है श्रतः निश्चय For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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