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________________ ५७ बायकारणमीमांसा नहीं प्राप्त होता है, इसलिये वह सहकारी कारणरूपसे दूसरोंकी गति क्रियाका हेतुकर्ता कैसे हो सकता है ? किन्तु मछलियोंके लिये जलके समान जीव-पुद्गलोंका आश्रय कारणमात्र होनेसे वह (धर्मद्रव्य) गलिका उदासीन ही प्रसर है। ___ यहाँ इस उदाहरणमें प्रभंजन पदसे वायुकायिक जीव लिये गये हैं अतः यह प्रयोग निमित्तका उदाहरण है। जहाँ पूगल द्रव्यकी पर्याय ली गई हो वहाँ यह पुद्गल द्रव्यकी पर्यायकी अपेक्षा विससानिमित्त का उदाहरण होता है, क्योंकि जीवकी स्वभाव पर्याय योग और विकल्पसे रहित होती है। तथा शेष द्रव्य जड हैं। इनमें ज्ञान भी नहीं, बल भी नहीं । जीवका त्रिकाली स्वभाव न किसीका कारण है ओर न कार्य है। इतना विशेष है कि जीवकी स्वभाव पर्यायमें प्रेरक, बन्धक, परिणामक, उत्पादकरूप व्यवहार नही होगा। समयसारमें कहा है भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता । ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्ण सगं भावं ॥५९।। जोवभाव यदि कर्मकृत हो तो जीव द्रव्यकर्मका कर्ता ठहरता है। परन्तु यह कैसे हो सकता है, क्योंकि जीव अपने भावोंको छोड़कर अन्य किसीको नही करता है ।।५९।। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्योके कार्यको त्रिकालमें करनेमें समर्थ नहीं है । शंका-इस वचन द्वारा आचार्यदेवने दो द्रव्योमे मात्र कर्ता-कर्म भावका ही निषेध किया है, इससे निमित्त-नैमित्तिक भावका निषेध कहाँ होता है। अतः एक द्रव्यकी दूसरे द्रव्योके कार्य में सहायकता उपकारकता तथा बलाधान निमित्तता आदि यथार्थ माननी चाहिये। अन्यथा आगममें जो स्व-परसापेक्ष परिणमन माने गये है वे घटित नहीं होते। । इससे स्पष्ट है कि स्व-परसापेक्ष परिणमनोंमे प्रत्येक स्व-परसापेक्ष परिणमनके लिये स्वके समान परकी भी अपेक्षा होती है। और तभी उसे स्वपरसापेक्ष परिणमन कहना संगत प्रतीत होता है। इसलिये परमागममें बाह्य निमित्तोंके कथनको निरर्थक न मानकर कार्यकारी ही मानना चाहिये? समाधान-यहाँ सर्व प्रथम देखना यह है कि परमागममे उक्त
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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