SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनतस्वमीमांसा तत्र योऽसौ बहिविषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितासद्भुतव्यवहारेण । पृ० १९३ ।। वहाँ यह जो पञ्चेन्द्रियोंके विषयादिका परित्यागरूप चारित्र है वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार किया गया है। __ इस समग्र कथनका यह तात्पर्य है कि आगममें जितना भी भेद व्यवहार या उपचार व्यवहार स्वीकार किया गया है वह व्यवहारनयसे मात्र प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर ही स्वीकार किया गया है। और इसीलिये समयसार गाथा १२ की आत्मख्याति टीकामे 'परिज्ञायमानः तदात्वे प्रयोजववान्' (जिस समय यह जीव भेदरूपसे वस्तुको जानता है या उपचार व्यवहार किया जाता है उस समय जाना हुआ यह व्यवहार प्रयोजनवान् है) इस कथन द्वारा व्यवहारको मात्र प्रयोजनवान् बतला कर उसका समर्थन किया गया है। __इस प्रकार निमित्त-नैमित्तिक आदि व्यवहार किस नयसे, कब और क्यों स्वीकार किया गया है इसका विचार किया। ६. बाह्य कारणके दो भेवोंका विचार बाह्य कारणके दो भेद है-प्रयोग और विस्रसा। आगममे निमित्त, कर्ता, प्रेरक, उत्पादक, बन्धक, परिणामक, उपकारक, सहायक आधारनिमित्त, आश्रयनिमित्त और उदासीननिमित्त आदि इन शब्दोंका व्यवहार यत्र-तत्र वाक्योंमें हुआ है उनका अन्तर्भाव उक्त दोनो भेदोंमे होता है । जहाँ अज्ञानी जीवका योगप्रवृत्ति और विकल्प निमित्त होता है वहाँ प्रयोगनिमित्त व्यवहार होता है और जहाँ स्वभाव परिणत जीव तथा पुद्गलादि द्रव्य निमित्त होते है वहाँ विस्रसानिमित्त व्यवहार होता है । पंचास्तिकाय समय टीकासे यही ज्ञात होता है___यथा हि गतिपरिणतः प्रभजनो वैजयन्तीना तिपरिणामस्य हेतुकर्ता वलोक्यते न तथा धर्म.। स खलु निष्क्रियत्वान् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेव आपद्यते । कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् । किन्तु सलिलमिव मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकारण मात्रत्वेनोदासीन एवासौ गते प्रसरो भवति । गा० ८८ । जैसे गतिपरिणत वायु पताकाओं के गतिपरिणामका हेतु कर्ता देखा जाता है वैसे धर्मद्रव्य हेतुकर्ता नही देखा जाता, क्योंकि वह परमार्थसे परिस्पन्द लक्षण क्रियासे रहित होनेके कारण कभी भी गतिक्रियाको ही
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy