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________________ जैनतत्वमीमांसा ४२ सताकी उत्पादक नहीं हो सकती, क्योंकि बिरुद्ध दो सत्ताओंमें परस्पर उत्पाद्य उत्पादकभावके माननेमें विरोध आता है, अतएव ऋजुसूत्रकी दृष्टिमें उत्पाद भी निर्हेतुक होता है यह सिद्ध होता है । समग्र कथनका तात्पर्य यह है कि ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिमें पर्याय स्वतन्त्र है, वह अपने कालमें स्वयं है । वह किसी द्रव्य या योग्यताके अधीन नहीं है । यह नय द्रव्य या योग्यताकी उपेक्षा कर मात्र अपने विषयको ही स्वीकार करता है । परसापेक्ष कथन इस नयका विषय नहीं है, वह द्रव्यार्थिकनय या नैगमनयका विषय है, क्योंकि नेगमनय एक तो संकल्पप्रधान नय है, वह सत्-असत् दोनोंको विषय करता है । दूसरे वह गोण - मुख्यभावसे द्रव्य और पर्याय दोनोंको विषय करता है, मुख्यतः उसका विषय उपचार है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए जयधवला पु० १ पृ० २०१ में आचार्य वीरसेन क्या कहते हैं, यह उन्होंके शब्दोंमें पढिये - यदस्ति न तद् द्वयमतिलंघ्य वर्तत इति नैक गमो नंगम. । शब्द-शील-कर्मकार्य-कारणाधा राधेय - सहचार- मान - मेयोन्मेय-भूत भविष्यद्वर्तमानादिकमाश्रित्योपचारविषयः । जो है वह दोनोंको छोड़कर नहीं वर्तता, इसलिये जो केवल एकको ही प्राप्त नहीं होता है, किन्तु गौण - मुख्यभावसे दीनोंको ग्रहण करता है वह नैगमनय है । शब्द, शील, कर्म, कार्य-कारण, आधार-आधेय, सहचार, मान-मेय, उन्मेय, भूत-भविष्यत् वर्तमान आदिकके आश्रयसे होनेवाला उपचार नैगमनयका विषय है । यद्यपि अध्यात्ममे व्यवहारको अनेक प्रकारका स्वीकार किया गया है । उनमेंसे उपचारकी परिगणना व्यवहारनयमें की गई है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए नयचक्रमें यह वचन आया है वि यदव्वसहावं उवयार तं पि ववहारं । गा० ६५, पृ० ३४ | जो उपचाररूप द्रव्यका स्वभाव है वह भी व्यवहार है । इस प्रकार संक्षेपरूपमें किये गये इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्य-कारणभावका कथन मुख्यतया नैगमनय ( व्यवहारनय) का विषय है । अब आगे विशदरूपसे इसका विवेचन किया जाता है२ कारणसामान्यका लक्षण प्रत्येक द्रव्यकी प्रति समय अपने परिणमनशील स्वभावके कारण जो उत्पाद व्ययरूप अवस्था होती है उसीकी लोकमें कार्य संज्ञा है । इसीको
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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