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________________ ४० जैनतत्त्वमीमांसा ___अस्य नयस्य निर्हेतुकः विनाशः। तद्यथा-न तावत्प्रसज्यरूपः परतः उत्पद्यते, कारकप्रतिषेधे व्यापतात्परस्मात् घटाभावविरोधात् । न पर्युदासो व्यतिरिक्त उत्पद्यते, ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तावपितघटस्म विनाशविरोधात् । नाव्यतिरिक्तः, उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधाद् । ततो निहेतुको विनाश इति सिद्धम् । (इस नय (ऋजुसूत्रत्रय) की दृष्टिमें विनाश निर्हेतुक होता है। यथाव्ययका अर्थ यदि प्रसज्यरूप अभाव लिया जाता है तो उसकी उत्पत्ति परसे मानना ठीक नहीं, क्योंकि प्राज्यरूप अभावमें कारकके प्रतिषेधमें अर्थात् 'करोति' क्रियाके निषेधमें ही निषेधपरक नका व्यापार होनेसे घटका अभाव मानने में विरोध आता है। अर्थात् व्ययका अर्थ प्रसज्यरूप अभाव मानने पर 'मुद्गर घटका अभाव करता है। इसका अर्थ होता है 'मुद्गर घटको नहीं करता है।' इसलिये प्रकृतमें व्ययका अर्थ प्रसज्यरूप अभाव तो हो नहीं सकता। यदि कहा जाय कि व्ययका अर्थे पर्युदासरूप अभाव लिया गया है तो प्रश्न है कि इस प्रकारका अभाव परसे भिन्न उत्पन्न होता है कि अभिन्न ? भिन्न तो उत्पन्न होता नहीं है, क्योंकि पर्युदासरूप अभावसे भिन्न घटकी उत्पत्ति होनेपर विवक्षित घटका मुद्गरसे विनाश मानने पर विरोध आता है । तात्पर्य यह है पर्युदास अभावरूप व्ययकी उत्पत्ति घटसे भिन्न माननेपर घटका विनाश नही हो सकता है। यदि कहा जाय कि पर्युदास अभावरूप व्यय घटसे अभिन्न होता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो उत्पन्न हो चुका है उसकी पुनः उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। अर्थात् जब पर्युदास अभावरूप व्यय घटसे अभिन्न है तब घट और पयुदास अभावरूप व्यय दोनों एक बस्तु हुए और ऐसा होनेसे पर्युदास अभावरूप व्ययकी उत्पत्ति और घटकी उत्पत्ति एक वस्तु हुई । ऐसी अवस्थामें पर्युदास अभावरूप व्ययकी उत्पत्ति मानने पर प्रकारान्तरसे घटकी उत्पत्ति सिद्ध हुई, क्योंकि दोनों एक वस्तु हैं। किन्तु घट तो पहले ही उत्पन्न हो चुका है, अतः उत्पन्नकी पुनः उत्पत्ति मानने में विरोध आता है, इसलिये ऋजुसूत्र नयको दृष्टिमें विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है। ___इस नयकी दृष्टि में जिसप्रकार विनाश निर्हेतुक सिद्ध होता है उसीप्रकार उत्पाद भी निर्हेतुक होता है यह भी स्पष्ट है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए इसी परमागमके पृष्ठ २०८-२०९ पर स्पष्ट किया है । यथा उत्पादोऽपि निर्हेतुकः । तद्यथा-नोत्पद्यमान उत्पादयति, द्वितीयक्षणे त्रिभूवनाभावप्रसङ्गात् । नोत्पन्न उत्पादयति, क्षणिकपक्षक्षतेः । न विनष्टं उत्पादयति, अभावाद्भावोत्पत्तिविरोधात् । न पूर्वविनाशोत्तरोत्पादयोः समानकालतापि कार्य
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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