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________________ ३४ जेनतस्वमीमांसा पारिणामिक स्वभावरूपसे तत्त्वका न व्यय होता है और न उत्पाद होता है। किन्तु वह स्थिर रहता है । इसीका नाम ध्रुव है। ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य है। तात्पर्य यह है कि पिण्ड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टी अन्वयरूपसे तदवस्थ रहती है, इसलिये जिसप्रकार एक ही मिट्टी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वभाव है उसीप्रकार इन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमय सत् है। इसप्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि चेतन और अचेतन अपने-अपने व्यक्तित्वस्वरूप जितने भी द्रव्य हैं उनका प्रत्येक समयमें अर्थ और व्यान पर्यायरूपसे जो भी परिणमन होता है वह अन्य किसी तद्भिन्न द्रव्यकी सहायतासे उत्पन्न हुआ कार्य न होकर उसकी अपनी स्वयं हुई विशेषता है तथा पर्यायरूपसे स्वयं परिणमन करते हुए भी जो वह अपने अनादिकालीन पारिणामिक स्वभावरूपसे स्थिर अर्थात् तदवस्थ रहता है, उसका वह पारिणामिक स्वभाव न तो उत्पन्न ही होता है और न व्ययको ही प्राप्त होता है, अतएव सदा अपने कालिक एक स्वभावरूपसे तदवस्थ रहना यह भी उसकी अपनी विशेषता है । इन दोनों विशेषताओंका समुच्चयरूप (तादात्म्यभावसे मिलित स्वभावरूप) द्रव्य या सत् है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। लोकमें जो यह सद्रूपसे अवस्थित द्रव्य है वह सामान्यसे एक प्रकारका होकर भी उत्तर भेदोंकी अपेक्षा मूलमें दो प्रकारका है-जीव और अजीव । उसमें भी अजीवके पांच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल | जीव अपनी-अपनी स्वरूप सत्ताकी अपेक्षा अनन्त है। पुदगल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं। तथा काल द्रव्य लोकाकाशके जितने प्रदेश है, उनमेंसे प्रत्येक प्रदेशपर पृथक्-पृथक् एक-एक अवस्थित होनेके कारण असंख्यात है। इसप्रकार जो ये छह द्रव्य हैं उनके समुच्चयका नाम लोक है। 'लोक्यन्ते यस्मिन् १. एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको नही परिणमाता है, अन्यथा प्रत्येक द्रव्यका ध्रुवस्वभावसे अवस्थित रहते हुए भी परिणमन करना उसका अपना स्वभाव है यह नही सिद्ध होता। और इसीलिये सर्वत्र जिनागममें द्रव्यका आत्मभूत लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्र वरूप कहा गया है। सर्वत्र जिनागममें कार्य की उत्पत्तिमें बाह्य (निमित्तका कथन बाह्य व्याप्ति वश किया गया है। कार्यकी उत्पत्तिमें वह परमार्थसे सहायक होता है, इसलिये नही। विशेष स्पष्टीकरण आगे करनेवाले है ही।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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