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________________ २७ • विषय-प्रवेश निमित्त कर होनेवाले रागादि भावों में भी परत्व बुद्धि हो जायगी, इसलिए इस जीवके ये रागादिक भाव शायक-स्वभाव आत्मासे भिन्न हैं यह जान लेना भी बावश्यक है। अब समझो कि किसी जीवने यह जान भी लिया कि मेरा ज्ञायक-स्वभाव आत्मा इन वर्णादिकसे और रागादिक भावोसे भिन्न है तो भी उसका इतना जानना पर्याप्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि जबतक इस जीवकी यह बुद्धि बनी रहती है कि प्रत्येक कार्यकी। उत्पत्ति परसे होती है तबतक उसके जीवन में परके आश्रयका ही बल बना रहनेसे उसने पराश्रय वृत्तियोंको त्याग दिया यह नहीं कहा जा सकता। अतएव प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि जो वर्णादिक और रागादिकसे अपने ज्ञायकस्वभाव आत्माको भिन्न जानता है वह यह भी जानता है कि प्रत्येक द्रव्यकी प्रति समयको पर्याय परसे उत्पन्न न होकर अपने उपादानके अनुसार स्वयं ही उत्पन्न होती है। यद्यपि यहाँपर यह प्रश्न होता है कि जब कि प्रत्येक द्रव्यको प्रति समयकी पर्याय परसे उत्पन्न न होकर अपने उपादानके अनुसार स्वयं ही उत्पन्न होती है तब रागादि भाव परके आश्रयसे उत्पन्न होते हैं यह क्यों कहा जाता है ? समाधान यह है कि रागादि भावोंकी उत्पत्ति होती तो अपने उपादानके अनुसार स्वयं ही, अन्यसे त्रिकालमें उत्पन्न नही होती, क्योंकि अन्य द्रव्यमें तद्भिन्न अन्य द्रव्यके कार्य करनेकी शक्ति ही नही पाई जाती । फिर भी रागादिभाव परके आश्रयसे उत्पन्न होते हैं यह परकी ओर झुकावरूप दोष जतानेके लिए ही कहा जाता है। वे परसे उत्पन्न होते हैं इसलिए नहीं । स्व-परकी एकत्व बुद्धिरूप मिथ्या मान्यताके कारण ही यह जीव संसारी हो रहा है। जीव और देहमें एकत्व बुद्धिका मुख्य कारण भी यही है। इस जीवको सर्वप्रथम इस मिथ्या मान्यताका ही त्याग करना है । इसके त्याग होते ही वह जिनेश्वरका लघुनन्दन बन जाता है जिसके फलस्वरूप उसकी आगेकी स्वातन्त्र्य मार्गकी प्रक्रिया सुगम हो जाती है। अतएव व्यवहारनयको मुख्यतासे कथन करनेवाले शास्त्रोंकी कथन शैलीसे अध्यात्मशास्त्रोंकी कथन शैलीमें जो दृष्टि मेद है उसे समझकर ही प्रत्येक मुमुक्षुको उनका व्याख्यान करना चाहिए । लोकमें जितने प्रकारके उपदेश पाये जाते हैं उनकी स्वमतके अनुसार किस प्रकार संगति बिठलाई जा सकती है यह दिखलाना जैनदर्शनका मुख्य प्रयोजन है, इसलिए उसमें कौन उपचरित कथन है और कौन अनुपचरित कथन है ऐसा भेद किये बिना यथासम्भव दोनोंको स्वीकार किया जाता है। किन्तु अध्यात्मशास्त्रके कथनका मुख्य प्रयोजन जीवको स्व-परका विवेक
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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