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________________ २६ जैनतत्त्वमीमांसा लिए उपचरित कथनको और भेदरूप व्यवहारको गौण करके अनुपचरित और अभेदरूप ( निश्चय ) कथनको मुख्यता दी गयी है और उस द्वारा निश्चयस्वरूप आत्माका ज्ञान कराते हुए एकमात्र उसीका आश्रय लेनेका उपदेश दिया गया है। यह तो सुनिश्चित बात है कि जितना भी व्यवहार है वह पराश्रित होनेसे हेय है, क्योंकि यह जीव अनादिकालसे अपने स्वरूपकी सम्हाल किये बिना राग, द्वेष, मोहद्वारा परका आश्रय लिए हुए है, अतएव संसारका पात्र बना हुआ है। अब इसे जिसमें पराश्रयपनेका लेश भी नहीं है ऐसे अपने स्वाश्रयपने को अपनी श्रद्धा, ज्ञान और चर्याके द्वारा अपने में ही प्रगट करना है तभी वह अध्यात्मवृत्त होकर मोक्षका पात्र बन सकेगा ! यद्यपि प्रारम्भिक अवस्थामें ऐसे जीवका चारित्रकी अपेक्षासे पराश्रयपना सर्वथा छूट जाता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि उसमेंसे पराश्रयपनेकी अन्तिम परिसमाप्ति विकल्पज्ञानके निवृत्त होनेपर ही होती है । फिर भी सर्वप्रथम यह जीव अपनी श्रद्धा द्वारा पराश्रयपने से मुक्त होता है । उसके बाद वह चर्याका रूप लेकर विकल्प ज्ञानसे निवृत्त होता हुआ क्रमशः निर्विकल्प समाधिदशामें परिणत हो जाता है। जीवकी यह स्वाश्रय वृत्ति अपनी श्रद्धा, ज्ञान और चर्यामें किस प्रकार उदित होती हैं इसका निर्देश करते हुए छहढाला में कहा भी है जिन परम पैनी सुबधि छैनी डार अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादि ते निज भावको न्यारा किया । निजमांहि निजके हेत निजकरि आपको आपे गह्यो । गुण-गुणी ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय मझार कछु भेद न रह्यो । इस छन्दमें सर्वप्रथम उत्तम बुद्धिरूपी पैनी छेनीके द्वारा अन्तरको भेदकर वर्णादक और रागादिकसे निज भाव ( ज्ञायक -स्वभाव आत्मा ) को जुदा 'करनेकी प्रक्रियापूर्वक, निज भावको अपनेमें ही अपने द्वारा अपने लिए ग्रहणकर यह गुण है, यह गुणी है, यह ज्ञाता है, यह ज्ञान है और यह ज्ञेय है इत्यादि विकल्पोंसे निवृत्त होनेका जो उपदेश दिया गया है सो इस कथन द्वारा भी उसी स्वाश्रयपने का निर्देश किया गया है जिसका हम पूर्व में उल्लेख कर आये है । इस द्वारा बतलाया गया है कि सर्वप्रथम इस जीवको यह जान लेना आवश्यक है कि वर्णादिकका आश्रयभूत पुद्गल द्रव्य भिन्न है और ज्ञायकस्वभाव आत्मा भिन्न है । किन्तु उसका इतना जानना तभी परिपूर्ण समझा जायगा जब उसकी व्यवहारसे परको
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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