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________________ deceantriter होता है। वह बाह्य निमितोंके मिलानेकी फिक्रको छोड़ देता है। निमित पर हैं, उनमेंसे कब कौन पदार्थ किस कार्यके होने में निमित्त होनेवाला है यह साधारणतया उपस्थके ज्ञानके बाहर है, क्योंकि जो पदार्थ लोकमें लघु माने जाते हैं वे भी कभी कभी उत्तम कार्यके होनेमें निमित्त होते हुए देखे जाते हैं। साथ ही जो पदार्थ लोकमें अमुक कार्यके होनेमें निमित्त रूपसे कल्पित किये गये है उनके सद्भावमें वह कार्य होता ही है यह निर्णय करना भी सम्भव नहीं है। इस प्रकार जहाँ बाह्य निमित्तोंके विषय यह स्थिति है वहाँ उपादानके विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिस उपादानसे जो कार्य होता है वह निश्चित है। इसलिये जो मोक्षमार्गके इच्छुक प्राणी हैं उन्हें बाह्य निमित्तों मिलाने की किक्र छोड़कर अपने उपादानकी सम्हालकी ओर ही ध्यान देना चाहिए। उसकी सम्हाल होनेपर बाह्य निमित्तोंकी अनुकूलता अपने आप बन जाती है। उनके लिए 'अलगसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता । उदाहरणार्थं मान लो एक आदमीको शव देखनेसे वैराग्य धारण करनेकी इच्छा हुई, दूसरे आदमीको अपना सफेद केश देखनेसे वैराग्यको धारण करनेकी इच्छा हुई, तीसरे आदमीको घरकी कलहसे ऊबकर वैराग्यको धारण करनेकी इच्छा हुई और चौथे आदमीको दूसरेका वैभव देखनेसे वैराग्यको धारण करनेकी इच्छा हुई । अब यहाँपर विचार कीजिये कि ये सब वेराग्यको धारण करनेकी इच्छाके अलग अलग निमित्त होते हुए भी इनमेंसे किस निमित्तको बुद्धिपूर्वक मिलाया गया है। यहाँ यही तो कहा जायगा कि उन मनुष्योंके वैराग्यके योग्य भीतरकी तैयारी थी, इसलिये वैसी इच्छा होनेमे ये निमित्त हो गये और यदि उस योग्य भीतरकी तैयारी न होती तो ये होते हुए भी निमित्त नहीं होते । उदाहरणार्थ- कोई मनुष्य बाह्य रूपमें मुनिलिङ्गको स्वीकार करता है पर उसके भावलिङ्ग नहीं होता । इसके विपरीत कोई मनुष्य जिस कालमें भावलिङ्गको स्वीकार करता है उस कालमें उसके द्रव्यलिङ्ग होता ही है। इससे स्पष्ट है कि उपादानके साथ कार्यकी व्यप्ति है निमिल साथ नही । इसलिए इससे यही तो निष्कर्ष निकला कि कार्यकी सिद्धिमे जैसा उपादानका नियम है वैसा बाह्य निमित्तका कोई नियम नहीं है और जो जिसका नियामक नहीं वह उसका साधक नहीं माना जाता अतएव कार्य अपने योग्य उपादानसे ही होता है यही निर्णय करना चाहिए। सम्यग्दाष्टका यहाँ भाव रहता है, इसलिए वह संसारसे पार हो जाता है और मिथ्यादृष्टि बाह्य निमित्तोकी उठाधरीमें लगा रहता
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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