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________________ केलामस्वभावमीमांसा , ३९ '.. 'भागममें जो जीवकी विभाव पर्याय और स्वभावपर्यायके भेदसे दो प्रकारकी पर्याय बतलाई हैं सो ऐसे बतलानेका जो कारण है उसे हमें समझना चाहिये। मूलकारण यह है कि जो पर्याय परके लक्ष्यसे उत्पन्न होती है वह विभावपर्याय है और जो पर्याय अपने त्रिकालीस्वभावके लक्ष्यसे उत्पन्न होती है वह स्वभावपर्याय है। यतः यह जीब, अपने भगवत्स्वरूप स्वभावके लक्ष्यसे भगवान् बनता है अत: उसके जान-दर्शन आदिरूप जो भी पर्याय उत्पन्न होती हैं वे सब स्वभावके अनुरूप ही होती हैं। उन्हें चाहे स्वभावपर्याय कहो और चाहे पर निरपेक्ष पर्याय कहो, दोनोंका अर्थ एक ही है। आगममें केवलज्ञान और केवलदर्शनको जो असहाय ज्ञान-दर्शन कहा गया है सो उसका आशय भी यही है। इस प्रकार जो केवलज्ञान और केवलदर्शन है एक तो वह इन्द्रियोंके माध्यमसे पदार्थोको न आनकर स्वयं जाननक्रियारूप प्रवृत्त होता है, इसलिये तो उसे इन्द्रियातीत कहा गया है, दूसरे विषयके आलम्बनसे उपयोगकी पलटन नहीं होती, इसलिये उसे क्रमरहित स्वीकार किया गया है और तीसरे वह बाह्यान्तर प्रतिबन्धकका अभाव होनेपर होता है, इसलिये वह देश और काल आदिके व्यवधानसे रहित होकर अलोकसहित त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंको युगपत् जानता है यह सिद्ध होता है। इसी तथ्यको संक्षेपमें स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारमें कहते हैं परिणमदो खलु गाणं पच्चक्खा सम्वदव्य-पज्जाया। सो व ते विजाणदि उगहपुध्वाहि किरियाहि ।। २१ ।। केवली जिनके नियमसे अन्य निरपेक्ष ज्ञानपरिणाम होता है, इसलिए उनके सब द्रव्य और उनकी सब पर्यायें प्रत्यक्ष हैं। वे उन्हें अवग्रह आदि क्रियाओं द्वारा नहीं जानते ॥२१॥ केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको युगपत् जानता है इसे स्पष्ट करते हुए उसी प्रवचनसारमें वे पुनः कहते हैं आवा गाणपमाणं गाणं पेयप्पमाणमुहिछ । मेयं लोयालोयं तम्हा थाणं दु सब्बगय ॥ २३ ॥ आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञान शेयप्रमाण कहा गया है और शेष लोकालोक है, इसलिये शामसर्वगल है अर्थात् शान समस्त लोकालोकको अपने जाननेरूपसे व्याप्त करके अवस्थित है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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