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________________ जैनतत्वमीमांसा निवास करता है उसके निकल जानेके कारण ही होता है। इस प्रकार महापोह द्वारा निर्णय करनेपर ज्ञानस्वरूप स्वतन्त्र सत्त्वके अस्तित्वको सिद्धि होती है। ३. आत्मा सर्वज्ञ और सर्ववी है यद्यपि आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ है तो भी वह अनादिकालसे अपने अज्ञानवश पुद्गल द्रव्यके साथ एक क्षेत्रावगाहसम्बन्धको प्राप्त होनेके कारण अपने स्वरूपको भूलकर हीन अवस्थाको प्राप्त हो रहा है। किन्तु जब वह अपने स्वस्वरूपके भानद्वारा अपनी इस संयोगकालमें होनेवाली विविध अवस्थाओका अन्तकर सहज स्वभाव अवस्थाको प्राप्त होता है तब उसके ज्ञानमें पर्यायरूपसे आई हुई न्यूनता या विविधता भी निकल जाती है और इस प्रकार उसके करण, क्रम और व्यवधानका अभाव हो जानेसे वह अलोक सहित त्रिलोकवर्ती समस्तपदार्थोको युगपत् जानने लगता है। इसी तथ्यको हेतुपुरस्सर स्पष्ट करते हुए आचार्य पुष्पदन्त-भूतबली वर्गणाखण्डके प्रकृति अनुयोगद्वारमें कहते हैं मदं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्म आदि गदि बंध मोक्ख इड्ढि हिदि जुदि अणुभागं तक्कं कल माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविद आदिकम्मं अरहकम्म सव्वलोए सन्यजीव सम्वभावे सम्म समं जाणदि पस्स द विहरदि ति ।। ८२ ।। स्वयं उत्पन्न हुए केवलज्ञान और केवलदर्शनसे युक्त भगवान् देवलोक, असुरलोक और मनुष्यलोकके साथ समस्तलोककी आगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोको, सब जीवों और सब भावोंको सम्यकप्रकारसे युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं ।।८२॥ इस सूत्रके प्रारम्भमें 'सई' पद माया है, जिससे इस तथ्यकी सूचना मिलती है कि पर्यायदृष्टिसे भगवान् बननेका यदि कोई मार्ग है तो वह मात्र अपने त्रिकाली ध्रुवस्वभावका आश्रय करना ही है, क्योंकि यह आत्मस्वरूपसे भगवान है, इसलिये जो भगवान्स्वरूप अपने आत्माका आश्रय कर उसमें लीन होता है अर्थात् तत्स्वरूप होकर परिणमता है वही पर्यायमें भगवान् बन सकता है, अन्य नहीं।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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