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________________ अनेकान्त-स्थाद्वादमीमांसा ३८७ अनेकान्तको सिदि किस प्रकार होती है इसका निर्देश करते हुए लिखा है तत्स्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्वकपकायमानशानस्वरूपेण . तत्वात् बहिरुम्मिषदनन्त यतापम्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात् सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिवंशसमृदयरूपाविभागद्व्येणैकत्वात् अविभागकद्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्याय रनेकत्वात् स्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभवनशक्तिस्वभावत्वेन सत्त्वात् परद्रव्यक्षेत्र काल-भावाभगनशक्तिस्वभाव वत्गेनासत्त्वात् अनादिनिधनाविभागकवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात् क्रमप्रवृत्तकसमयामच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्त्वेनानित्यत्वात्तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव । __आत्माके ज्ञानमात्र होने पर भी भीतर प्रकाशमान ज्ञानरूपसे सत्पना है और बाहर प्रकाशित होते हुए अनन्त ज्ञेयरूप आकारसे भिन्न पररूपसे अतत्पना है। सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चैतन्य अशोके समुदायरूप अविभागी द्रव्यकी अपेक्षा एकपना है और अविभागी एक द्रव्यमें व्याप्त हर सहप्रवत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चैतन्य-अशरूप पर्यायोंको अपेक्षा अनेकपना है। स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे सत्पना है और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप नहीं होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे असत्पना है तथा अनादिनिधन अविभागी एक वृत्तिरूपसे परिणत होनेके कारण नित्यपना है और क्रमश प्रवर्तमान एक समयवर्ती अनेक बृस्यंशरूपसे परिणत होनेके कारण अनित्यपना है, इसलिए ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको स्वीकार करने पर तत्-अतत्पना, एक-अनेकपना, सदसत्पना और नित्यानित्यपना स्वयं प्रकाशित होता ही है। अतएव अनेकान्तके विचारके प्रसंगसे मोक्षमार्गमें निश्चयनयके विषयको आश्रय करने योग्य मानने पर एकान्तका दोष केसे नहीं पाता इसका विचार किया। इसके विपरीत जो बन्धु अनेकान्तको एक बस्तुके स्परूपमें घटित न करके 'भव्य भी हैं और अभव्य भी हैं' इत्यादि रूप से या 'कुछ पर्यायें अमुक कालमें अमुकरूप हैं और कुछ पर्यायें तद्भिन्न दूसरे कालमें दूसरेरूप हैं' इत्यादि रूपसे अनेकान्तको घटित करते हैं उन्हें अनेकान्तको शब्द श्रुतमें बांधनेवाली स्यावादकी अंगभूत सप्तभंगोका यह लक्षण ध्यानमें ले लेना चाहिये। प्रश्नवमादेकस्मिन् व तुन्यवरोधेन विधि-प्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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