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________________ ३८६ जैनतत्त्वमीमांसा भी स्वीकृति है । वह जीवको संसार और मुक्त अवस्थाका अभाव नहीं मानता । संसारमें जो उसकी नर-नारकादि और मतिज्ञान - श्रुतज्ञानादि रूप विविध अवस्थायें होती हैं उनका भी अभाव नहीं मानता। यदि वह वर्तमानमें उनका अभाव माने तो वह मुक्तिके लिए प्रयत्न करना ही छोड दे । सो तो वह करता नहीं, इसलिए वह इन सबको स्वीकार करके भी इन्हें आत्मकार्यकी सिद्धि में अनुपादेय मानता है, इसलिए वह इनमें रहता हुआ भी इनका आश्रय न लेकर त्रिकाली नित्य एकमात्र ज्ञायकस्वभावका आश्रय स्वीकार करता है । निश्चयनय और व्यवहारनयके विषयोको जानना अन्य बात हैं और जानकर निश्चयनयके विषयका अवलम्बन लेना अन्य बात है। मोक्षमार्गमें इस दृष्टिकोणसे हेयोपादेय का विवेक करके स्वात्मा और परमात्माका निर्णय किया गया है । यदि लौकिक उदाहरण द्वारा इसे समझना चाहें तो यों कहा जा सकता है कि जैसे किसी गृहस्थका एक मकान है । उसमें उसके पढ़ने-लिखने और उठने-बैठनेका स्वतन्त्र कमरा है । वह घरके अन्य भागको छोड़कर उसीमे निरन्तर उठता बैठता और पढता-लिखता है । वह कदाचित् मकानके अन्य भागमें भी जाता है । उसकी सार-सम्हाल भी करता है । परन्तु उसमे उसकी विवक्षित कमरेके समान आत्मीय बुद्धि न होनेसे वह मकानके शेष भाग में रहना नहीं चाहता। ठीक यही अवस्था सम्यदृष्टिकी होती है। जो उसे वर्तमानमें नर-नारक आदि वर्तमान पर्याय मिली हुई है । वह उसीमें रह रहा है। अभी उसका पर्यायरूपसे त्याग नही हुआ है । परन्तु उसने अपनी बुद्धि द्वारा द्रव्यार्थिकनयका विषयभूत ज्ञायकस्वभाव आत्मा ही मेरा स्वात्मा है ऐसा निर्णय किया है, इसलिए वह व्यवहारनयके विषयभूत अन्य अशेष परभावोंको गौण कर मात्र उसीका आश्रय लेता है । कदाचित् रागरूप पर्यायकी तीव्रतावश वह अपने स्वात्माको छोड़कर परात्मामें भी जाता हैं तो भी वह उसमे क्षणमात्र भी टिकना नही चाहता । उस अवस्था में भी वह अपना तरणोपाय स्वात्मके अवलम्बनको ही मानता है । अतएव इस दृष्टिकोणसे विचार करने पर सम्यग्दृष्टिका विवक्षित आत्मा स्वात्मा अन्य परात्मा यो अनेकान्त फलित होता है। इसमें 'आत्मा कथंचित् ज्ञायक भावरूप है और कथंचित् प्रमत्तादि भावरूप है' इसकी स्वीकृति भा ही जाती है, परन्तु ज्ञायकभाव में प्रमत्तादिभावोकी 'नास्ति' है, इसलिए इस अपेक्षासे यह अनेकान्त फलित होता है कि 'आत्मा ज्ञायक भावरूप है अन्य रूप नहीं ।' आचार्य अमृतचन्द्रने आत्माको ज्ञायकभावरूप मानने पर
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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