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________________ विषय प्रवेष इसी अर्थको स्पष्ट करते हुए उक्त गाथाकी टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं__ इह खलु पोद्गालककर्मण' स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्बमादेरशानासन्निमित्तभूतेनाशानभावेन परणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पयमानत्वात्पौगलिक कर्मात्मनाकृतमिति निर्विकल्पविज्ञानधनभ्रष्टानां विकल्पपराणां परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचार एव न तु परमार्थः।।१०५।। ___ इस लोकमें आत्मा निश्चयतः स्वभावसे पुद्गल कर्मका निमित्तभूत नहीं है तो भी अनादिकालीन अज्ञानवश उसके निमित्तभूत अज्ञान भावरूप परिणमन करनेसे पुद्गलकर्मका निमित्तरूप होनेपर पुद्गलकर्मकी उत्पत्ति होती है, इसलिए आत्माने कर्मको किया ऐसा विकल्प उन जोवोंके होता है जो निर्विकल्प विज्ञानघनसे भ्रष्ट होकर विकल्पपरायण हो रहे हैं । परन्तु वह विकल्प उपचार ही है अर्थात् उपचरित अर्थको ही विषय करनेवाला है। यह आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्रका कथन है। किन्तु उन्होने इसे उपचरित क्यों कहा, इसका कोई हेतु तो होना ही चाहिए, अतः इसीका यहॉपर साङ्गोपाङ्ग नयदृष्टिसे विचार करते हैं परमागममें बाह्य व्याप्तिवश लौकिक व्यवहारको स्वीकार कर असद्भूत व्यवहारनयका लक्षण करते हुए लिखा है कि जो अन्य द्रव्यके गुण-धर्मोको अन्य द्रव्यके कहता है वह असद्भूत व्यवहारनय है । नयचक्रमें कहा भी है अण्णेसि अण्णगुणो भणइ असब्भूद् " ॥२२३।। अन्यके गुणधर्मको अन्यका असद्भूत व्यवहारनय कहता है । इसीको विशदरूपसे स्पष्ट करते हुए आलापपद्धतिमें भी बतलाया है अन्यत्र प्रसिवस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका हुए अन्यमें समारोप करना असद्भूत व्यवहार है। __इसके मुख्य दो भेद हैं-उपचरित असद्भूत व्यवहारनय और अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय । बृहद्व्य संग्रहमे 'पुग्गल कम्मादीणं कत्ता' इस गाथाके व्याख्यानके प्रसंगसे उदाहरण पूर्वक इन नयोंका खुलासा करते हुए लिखा है
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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