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________________ जैनतत्त्वमीमांसा की व्यवस्था है। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थमें जब जो धर्म विवक्षित होता है तब उसको अपेक्षा वह अस्तित्वरूप होता है और तदितर अन्य धर्मों की अपेक्षा वह नास्तित्वरूप होता है। अस्तित्व धर्मका नास्तित्व धर्म अविनाभावी है, इसलिए जहाँ किसी एक विवक्षासे अस्तित्व धटित किया जाता है वहां तद्भिन्न अन्य विवक्षासे नास्तित्व धर्म होता ही है। न तो केवल अस्तित्व ही वस्तुका स्वरूप है और न केवल नास्तित्व ही। सत्ताका लक्षण करते हुए बाचार्यों ने उसे सप्रतिपक्ष कहा है वह इसी अभिप्रायसे कहा है । ___उदाहरणार्थ जब हम किसी विवक्षित मनुष्यको नाम लेकर बुलाते हैं तो उसमें उससे भिन्न अन्य मनुष्योंको बुलानेका निषेध गर्भित रहता ही है। या जैसे हम किसी विवक्षित पर्यायके ऊपर दृष्टि डालते है तो उसमे तद्भिन्न पर्यायोंका अभाव गभित रहता ही है । या जव हम किसीके भव्य होनेका निर्णय करते है तो उसमे अभव्यताका अभाव गर्भित है ही। इसलिए कहीं पर मात्र विधिद्वारा किसी धर्म विशेषका सत्त्व स्वीकार किया गया हो तो उसमे तदितरका अभाव गभित हो है ऐसा समझना चाहिए। एक वस्तुमें विवक्षित धर्मकी अपेक्षासे अस्तित्व और अन्यको अपेक्षासे नास्तित्व यही अनेकान्त है। इससे विवक्षित वस्तु में धर्मविशेषकी प्रतिष्ठा होकर उसमें अन्यका उसरूपसे होनेका निषेध हो जाता है। यहाँ जिस प्रकार सदसत्त्वकी अपेक्षा अनेकान्तका निर्देश किया है उसी प्रकार तदतत्त्व, एकानेकत्व और भेदाभेदत्व आदिकी अपेक्षा भी उसका निर्देश कर लेना चाहिए। इस विषयको स्पष्ट करते हुए नाटकसमयसारके स्याद्वाद अधिकारमें पण्डितप्रवर बनारसी दासजी कहते हैं द्रव्य क्षेत्र काल भाव चारों भेद वस्तु ही में अपने चतुष्क वस्तु अस्तिरूप मानिये । परके चतुष्क बस्तु न अस्ति नियत अम ताको भेद द्रव्य परयाय मध्य जानिये ।। दरव जो वस्तु क्षेत्र भत्ताभूमि काल चाल स्वभाव सहज मूल सकति बखानिये । याही भाँति पर विकलप बुद्धि कलपना व्यवहार दृष्टि अंश भेद परमानिये ॥ १० ॥ प्रवचनसार ज्ञेयाधिकार गाथा १०३ से ११५ तक विशेष दृष्टव्य हैं।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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