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________________ जैनतत्त्वमीमांसा (५) जो जिसके बाद होता है तो कारण कहते है और जो होता है उसे कार्य करते हैं तत्त्वार्थश्लोक पृ० १५१) । अविनाभाववश सूचित होनेवाला यह कारण-कार्यभावका निर्दोष लक्षण है। नयदृष्टिसे इसका विचार करने पर विदित होता है कि यह इसका कार्य है और यह इसका कारण है इस प्रकार दो में सम्बन्धको स्थापित करनेवाला जो भी विकल्प होता है वह संकल्प प्रधान नैगमनयका विषय होनेसे उपचरित ही है। यह संग्रह नयका विषय तो हो नहीं सकता, क्योकि संग्रहनय मुख्यरूपसे अभेदको विषय करता है। व्यवहारनयका भी विषय नही हो सकता, क्योंकि व्यवहारनय मुख्यरूपसे द्रव्य आदि भेदको विषय करता है। दोमें सम्बन्ध स्थापित करना इन नयोंका विषय नही हो सकता। ऋजु सूत्रनय एक समयवर्ती वर्तमान पर्यायको ही विषय करता है, इसलिए इस नयको अपेक्षा उत्पाद और विनाश दोनों ही निर्हेतुक सिद्ध होते है। इस नयमें उत्पाद्य-उत्पादकभाव विशेषण-विशेष्यभाव, ग्राह्य-ग्राहकभाव और वाच्यवाचकभाव आदि कुछ भी सिद्ध नहीं होते ( जयध० पृ० २००-२११ )। ये सब संकल्पप्रधान नैगमनयमें ही घटित होते है। ४. निश्चय-व्यवहारका स्वरूप निर्देश ये कतिपय आगम प्रमाण हैं । इनको लक्ष्यमे रखकर अपनी सुबोध भाषामें पण्डितप्रवर टोडरमलजी निश्चय और व्यवहारका स्वरूप निर्देश करते हुए मोक्षमार्ग-प्रकाशकमें लिखते हैं___ वहाँ जिन आगममे निश्चय-व्यवहाररूप वर्णन है। उनमे यथार्थका नाम निश्चय है, उपचारका नाम व्यवहार है। [अ०७ पृ० १९३ ] व्यवहार अभूतार्थ है, सत्य स्वरूपका निरूपण नही करता; किसी अपेक्षा उपचारसे अन्यथा निरूपण करता है। तथा शुद्धनय जो निश्चय है वह भूतार्थ है, जैसा वस्तुका स्वरूप है, वैसा निरूपण करता है। इस प्रकार इन दोनोंका स्वरूप तो विरुद्धता सहित है। एक ही द्रव्यके भावको उस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है, उपचार से उस द्रव्यके भावको अन्य द्रव्यके भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है । जैसे मिट्टीके घड़ेको मिट्टीका घड़ा निरूपित किया जाय सो निश्चय और घृतसंयोगसे उपचारसे उसीको घृतका घड़ा कहा जाय सो व्यवहार । ऐसे ही अन्यत्र जानना । [ अध्याय ७ पृ० २४९]
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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