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________________ विषयप्रवेश धर्मी है और यह इसका धर्म है (अष्टसहस्त्री पृ० २३३) । इतना अवश्य है कि स्वभावसे अमेद होनेपर भो जहाँ एक सत्ताक वस्तुमें धर्म और धर्मीका भेद विवक्षित होता है वहाँ सद्भूत व्यवहार होता है और जहाँ स्वतन्त्र सत्ताक दो द्रव्योंमें धर्म-धर्मीपना और कर्ता कर्मपना आदिका अभाव होते हुए भी प्रयोजन विशेषवश किसी भी प्रकारका सम्बन्ध स्थापित किया जाता है वहाँ अद्भूत व्यवहार होता है और असद्भत व्यवहारका दूसरा नाम उपचार है ( आलापपद्धति ) । ( ३ ) प्रत्येक द्रव्य स्वभावसे नित्यानित्यस्वरूप है । अपने अन्वय स्वभावके कारण वह नित्य है और व्यतिरेक स्वभावके कारण वह अनित्य है । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य सिद्ध होता है । यह उसका स्वभाव है, इसलिए नित्य रहते हुए भी वह स्वयं परिणमन करता है, इसके लिए वह परिणमन करानेवाले दूसरे द्रव्यकी अपेक्षा नहीं करता ( समय०, आ० ख्या० टी० ११६ - १२० गा०, अष्टसह ० पृ० ११२ ) । इससे स्पष्ट है कि जितना भी परसापेक्ष कथन आगममे उपलब्ध होता है उसे उपचरित ही समझना चाहिए । 1 ( ४ ) जीव क्रमनियमित अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं । इसी प्रकार अजीव भी क्रम नियमित अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं, क्योंकि जिस प्रकार सुवर्णका अपने कंकण आदि परिणामोंके साथ तादात्म्य पाया जाता है उसी प्रकार सर्व द्रव्योंका अपने-अपने परिणामोंके साथ तादात्म्य पाया जाता है । इस प्रकार जीवका अपने परिणामोंके साथ उत्पन्न होते हुए भी अजीवके साथ कार्य-कारण भाव नहीं सिद्ध होता है, क्योंकि सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य उत्पादकभावका अभाव है । और उसके सिद्ध नहीं होने पर अजीव ( ज्ञानावरणादि कर्म ) जीवका कर्म है यह नहीं सिद्ध होता और इसके सिद्ध नहीं होने पर कर्ता - कर्मको परसापेक्ष सिद्धि नहीं होती, अतः जीव अजीवका कर्ता है यह नहीं सिद्ध होता है, इसलिए जीव परके परिणामोंका अकर्ता है यह सिद्ध होता है ( समय ० ३०८-३११, आ० ख्या० टी० ) । यह परमार्थसे वस्तु व्यवस्था है । इसे साक्षी कर विचार करने पर विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें स्वभावसे परसापेक्ष नही होती, इसलिए एकके कार्य आदिका दूसरेको कर्त्ता आदि मानना लौकिक विकल्प ही है जो असद्भूत होनेसे उपचरित ही है ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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