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________________ . " ' निश्चय-व्यवहारमीमांसा ३३१ शंका-समयसारादिमें भी व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको स्वीकार किया गया है सो क्यों ? समाधान-असद्भुत व्यवहारनयसे ही ये स्वीकार किये गये हैं। इसका अर्थ है कि ज्ञानभावकी दृष्टिसे वे आत्माके होते ही नहीं। मात्र ज्ञानीके प्राकपदवीमें ऐसा व्यवहार किया जाता है। शंका-तो ज्ञानीको देवपूजा, जिनागमका पठन-पाठन, और व्रताचरण इनमें सावधानी वर्तनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं ऐसा माना जाय? समाधान-उक्त सविकल्प अवस्थामे ये सहज होते हैं। इसीका नाम सावधानी वर्तना है। मुख्य बात यह है कि ये भूमिकानुसार होओ। ज्ञानभावकी दृष्टिसे ज्ञानीके इनका स्वामित्व नहीं होता। तथा कर्तृत्व और स्वामित्वका योग है। जिसका स्वामित्व नही उसका कर्तृत्व भी नहीं। ज्ञानी तो एकमात्र शानभावका ही कर्ता है। कलशकाव्यमें यही कहा है कतत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् । अज्ञानादेव कर्ताय तदभावादकारक. ॥ चित्स्वरूप आत्माका जैसे पर पदार्थका भोगना स्वभाव नहीं है वैसे ही पर पदार्थका करना भी उसका स्वभाव नहीं है। वह अज्ञानसे ही पर पदार्थका कर्ता कहा जाता है । अज्ञानका अभाव होनेपर वह अकर्ता ही है ॥१९४|| इसी अर्थको सूचित करनेबाला दूसरा कलशकाव्य देखिएयः करोति स करोति केवलम्, यस्तु जानाति स तु वेत्ति केवलम् । य. करोति न हि वेत्ति स क्वचित्, यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ॥९६।। जो करता है अर्थात् मेंने यह किया, वह किया इस भावसे ग्रसित रहता है वह मात्र करता ही है और जो जानता है अर्थात् जाननरूप परिणमता है वह मात्र जानता ही है। जो करता है वह कभी जानता नहीं और जो जानता है वह कभी करता नहीं ॥१६॥ आशय यह है कि करनेका विकल्प अज्ञानीके होता है, ज्ञानीके नहीं । ज्ञानो तो जाननक्रियारूप ही परिणमता है। __ शंका-सो क्या ऐसा समझा जाय कि ज्ञानमार्गमें बाह्य निमित्तको कुछ भी स्थान नही है । यदि ऐसा एकान्तसे मान लिया जाय तो समयसार परमागममें यह क्यों कहा कि एक-दूसरेके निमित्तसे दोनोंका परिणाम होता है ( ८१ ) ?
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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