SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनतत्त्वमीमांसा आदि रूप चारित्र धारण करनेका अधिकारी होता है। संयममार्गणाका ख्यापन करते हए इसी तथ्यका निर्देश पवला पुस्तक १ में भी दृष्टि गोचर होता है। यह कोई सोनगढ या किसी व्यक्तिविशेषकी दृष्टिका उद्घाटन नहीं है, किन्तु अनादिकालसे चला आ रहा सनातन यथार्थ मार्ग है। वर्तमानमें सोनगढ उसी सनातन और यथार्थ मोक्षमार्गका मात्र दिग्दर्शन करा रहा है। (४) मोक्षमार्गकी दृष्टिसे ज्ञान आत्मा है इसे परमभागग्राही अध्यात्मके अनुसार स्वीकार करके भी चरणानुयोगमें रागको भी आत्माका स्वीकार किया गया है। इसलिये जहाँ अध्यात्मके अनुसार बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक राग असद्भूत व्यवहारनयसे आत्माके कहे जाते हैं। वहाँ चरणानुयोग रागमात्रको उपचरित सद्भूत व्यवहार नयसे आत्माका स्वीकार करता है। यही कारण है कि चरणानुयोगमे निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक जितनी भी मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति होती है वह ज्ञानीके किस प्रकारकी होती है इसकी प्ररूपणा की गई है। इस विषयमें अध्यात्म इतना ही कहता है कि जब तक आत्मा ज्ञानमार्गकी परिपक्व अवस्थाको प्राप्त नहीं होता तबतक ज्ञानमार्ग और कर्ममार्गका साथ-साथ होना भले ही विहित रहे। पर इतना निश्चित समझना चाहिये कि ज्ञानमार्ग पर सम्यक् प्रकारसे आरूढ हुआ व्यक्ति ही कर्मबन्धसे मुक्त होता है । रागरूप मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति तो एकमात्र बन्धका ही कारण है। (५) इस प्रकार दोनों ही अनुयोगद्वारोंके अनुसार व्यवहारनयकी प्ररूपणामें एक भेद तो यह है । दूसरा भेद यह है कि जब अध्यात्म रागको आत्माका स्वीकार ही नही करता तब वह शरीर और बाह्य दूसरे सयोगोंको आत्माका कैसे स्वीकार कर सकता है। अर्थात् नही कर सकता। किन्तु चरणानुयोग राग आत्माका सद्भूत धर्म है ऐसा स्वीकार करके वह रागके माध्यमसे शरीर और परपदार्थ इनको भी आत्माका स्वीकार कर लेता है। जब कि वे आत्मासे अत्यन्त भिन्न है। इस प्रकार हम देखते है कि जहाँ द्रव्यानुयोगकी प्ररूपणा मात्र अन्तर्मुखी होनेसे आत्माके निजभावको उद्घाटित करनेमें समर्थ है वहाँ चरणानुयोगकी प्ररूपणा विषय-कषायसे कथंचित् परावृत करनेबाली होनेपर भी आत्माके निजभावको उद्घाटित करने में समर्थ नहीं हो पाती।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy