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________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा ३०७ पुरुष बरासे भी कारणका बहाना छल पाकर अनेक कल्पना करके असदृशको भी सदृश कर दिखाता है। उसीको कहते हैं। जैसे यद्यपि जीव पुद्गलकी सत्ता भिन्न है, स्वभाव भिन्न है, प्रदेश भिन्न हैं, तथापि एक क्षेत्रावगाहसम्बन्धका छल (बहाना) पाकर 'वात्मद्रव्यको शरोरादिक परद्रब्यसे एकत्वरूप कहता है।' मुरू दशामें प्रकट भिन्नता होती है। तब व्यवहारनय स्वयं ही भिन्न-भिन्न प्रकाशित करनेको तैयार होता है । अतः व्यवहारनय असत्यार्थ है। 'प्रायः भूतार्थबोषविमुखः सोऽपि संसार.' अतिशयपने सत्यार्थ जो निश्चयनय है उसके परिज्ञानसे विपरीत जो परिणाम (अभिप्राय) है वह समस्त संसारस्वरूप ही है। भावार्थ---इस आत्माका परिणाम निश्चयनयके श्रद्धानसे विमुख होकर, शरीरादिक परद्रव्योंके साथ एकत्व श्रद्धानरूप होकर प्रवर्तन करे उसीका नाम संसार है। इससे जुदा संसार नामका कोई पदार्थ नहीं है । इसीलिए जो जीव संसारसे मुक्त होनेके इच्छुक हैं उन्हें शुद्धनयके सन्मुख रहना योग्य है । इसीको उदाहरण देकर समझाते हैं। जिस प्रकार बहत पुरुष कीचड़के संयोगसे जिसको निर्मलता आच्छादित हो गई है, ऐसे गंदले जलको ही पीते है। और कोई अपने हाथसे कतकफल (निर्मली) डालकर कीचड और जलको अलग-अलग करता है। वहाँ निर्मल जलका स्वभाव ऐसा प्रकट होता है जिसमें अपना पुरुषाकार प्रतिभासित होता है, उसी निर्मल जलका वह आस्वादन करता है। उसी प्रकार बहुतसे जीव कमंके सयोगसे जिसका ज्ञानस्वभाव ढंक गया है ऐसे अशुद्ध मात्माका अनुभव करते हैं। कुछ ज्ञानी जीव अपनी बुद्धिसे शुद्ध निश्चयनयके स्वरूपको जानकर कर्म और आत्माको भिन्न-भिन्न करते हैं तब निर्मल आत्माका स्वभाव ऐसा प्रकट होता है जिससे अपने चैतन्य पुरुषका आकारस्वरूप प्रतिभासित हो जाता है। इस प्रकार वह निर्मल आत्माका स्वानुभवरूप आस्वादन करते हैं। अत शुद्धनय कतकफल समान है उसीके श्रद्धानसे सर्वसिद्धि होती शका--गाथा १३ में भूतार्थनयसे जाने गये जीवादि नव पदार्थ सम्यग्दर्शन हैं ऐसा कहा गया है और गाथा ६-७ में उन्हें अभूतार्थ. कहकर सम्यग्दर्शनकी प्रसिदिमें जीवादि नौ पदार्थोके अनुभवका निषेध किया गया है सो क्यों ? समाधान--भूतार्थरूपसे जीवादि नौ पदार्थोंका जानता यही
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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