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________________ ३०६ जैनतत्त्वमीमांसा चारित्र कहनेका निषेध किया गया है, क्योंकि वह अनन्त धर्मों में व्याप्त एक धर्मी है। आगममें विविध धर्मो द्वारा जो उक्त कथन किया गया है सो वह आत्मतत्त्वके जिज्ञासु जनोंकी दृष्टिसे ही किया गया है। वस्तुतः देखा जाय तो धर्म और धर्मी में स्वभावसे अभेद है, फिर भी भेदकल्पना द्वारा ऐसा कहा जाता है कि ज्ञानी ज्ञान है दर्शन है और चारित्र है, वस्तुतः वह अनन्त धर्मोको पिये हुए एक धर्मो है । अतएव ऐसा अनुभव करनेवाले के दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपसे ज्ञायक आत्मा अनुभवमें नही आकर भेदकल्पना निरपेक्ष ज्ञायक आत्मा ही अनुभवमें आता है। इस प्रकार इस कथन द्वारा अनुपचरित सद्भूत व्यवहार क्यों अभूतार्थ है यह सिद्ध किया गया है। __ पण्डितप्रवर टोडरमलजी सा० भूतार्थ और अभूतार्थके अर्थकी स्पष्ट करते हुए पुरुषार्थसिद्धय पायमें लिखते है निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहार वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुख प्राय सर्वोऽपि ससार. ॥५।। इस ग्रन्थमें निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थवर्णन करते है। प्राय भूतार्थ अर्थात् निश्चयनयके ज्ञानसे विरुद्ध जो अभिप्राय है वह समस्त ही ससारस्वरूप है ।।५।। टीका-'इह निश्चयं भूतार्थ व्यवहारं अभूतार्थ वर्णयन्ति' आचार्य इन दोनो नयोंमे निश्चयनयको भूतार्थ कहते है और व्यवहार नयको अभूतार्थ कहते है। भावार्थ-भूतार्थ नाम सत्यार्थका है । भूत जो पदार्थमें पाया जावे, और अर्थ अर्थात् 'भाव' । उनको जो प्रकाशित करे तथा अन्य किसो प्रकारको कल्पना न करे उसे भूतार्थ कहते है। जिस प्रकार कि सत्यवादो सत्य हो कहता है, कल्पना करके कुछ भी नहीं कहता। वही यहाँ बताया जाता है। यद्यपि जीव और पुद्गलका अनादि कालसे एक क्षेत्रावगाहसम्बन्ध है और दोनो मिले हए जैसे दिखाई पड़ते है तो भी निश्चयनय आत्मद्रव्यको शरीरादि पर द्रव्योंसे भिन्न ही प्रकाशित करता है । वही भिन्नता मुक्त दशामे प्रकट होती है। इसलिये निश्चयनय सत्यार्थ है। __ अभूतार्थ नाम असत्यार्थका है। अभूत अर्थात् जो पदार्थमें न पाया जावे और अर्थ अर्थात् भाव। उनको जो अनेक प्रकारको कल्पना करके प्रकाशित करे उसे अभूतार्थ कहते है। जैसे कोई असत्यवादी
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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