SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ जैनतत्वमीमांसा ___ शुद्धनय कहो चाहे निर्विकल्प निश्चय नय कहो दोनोंका एक ही अर्थ है। इसी तथ्यका समर्थन समयसारकी इस गाथासे स्पष्टतः होता है जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध-पुट्ठमणण्णयं णियदं । अविसेसममजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि ॥ १४ ॥ जो अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माको अनुभवता है उसे शुद्धनय जानो ॥ १४ ॥ यहाँ कर्मोपाधिसे भिन्न आत्माकी अनुभूतिके अर्थमे अवद्धस्पृष्ट पद आया है, नर-नारकादि पर्यायोंसे भिन्न आत्माकी अनुभूतिके अर्थमें अनन्य पद आया है, मति-श्रुत आदिके षड्गुणहानि-वृद्धिरूप पर्यायोंसे भिन्न आत्माकी अनुभतिके अर्थमें नियत पद आया है, ज्ञान-दर्शनादि गुणोसे भिन्न आत्माकी अनुभूतिके अर्थमें अविशेष पद आया है और मोहभावसे संयुक्त अवस्थासे भिन्न आत्माकी अनुभूतिके अर्थमें असंयुक्त पद आया है। ऐसे आत्माको अनुभवता ही शुद्ध नय है यह इसका तात्पर्य है। ऐसे आत्माका विशदरूपसे कथन समयसारकी ६वीं और ७वी गाथा और उनकी आत्मख्याति टीकामें प्रांजलपनेमे किया गया है सो हम इसको पहले ही स्पष्ट कर आये हैं। इस विषय पर आगे और भी प्रकाश डालेंगे। ___ शंका-पुद्गलादि जितने अन्य द्रव्य है, वे भी अपने-अपने त्रिकाली स्वभावपनेकी अपेक्षा अवद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत अविशेष और असंयुक्त होते हैं. अतः ऐसो अनुभूतिको आत्मानुभूतिमात्र कहना ठीक नहीं, यह सत्सामान्यपनेकी अपेक्षा सर्वानुभूति क्यों न मानी जाय ? समाधान--उक्त सूत्रगाथामे 'अप्पाणं' पद आया है। और आत्मा पदका अर्थ है ज्ञान-दर्शनस्वभाव वस्तु । इसलिये इस पदद्वारा अन्य पुद्गलादि अशेष वस्तुओंका वारण सुतरां हो जाता है, क्योंकि अबद्धस्पष्ट अनन्य, नियत, अविशेष और असयुक्त ज्ञान-दर्शन स्वभाव वस्तुकी अनुभूतिको प्रकृत्तमें स्वात्मानुभूतिरूपसे स्वीकार किया गया है । शका-जब व्यवहारनयके विषयको अनुपादेय बतला कर उस पर दृष्टि केन्द्रित न करनेके लिये कहा जाता है तब सविकल्प निश्चयनयके विषयको भी अनुपादेय क्यों नहीं कहा जाता, क्योंकि स्वभाव निमग्न होनेके लिये विकल्प मात्रसे परावृत होना आवश्यक है ?
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy