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________________ निश्वव्यवहारमीमांसा ३०१ द्रव्य और पर्यायमें बमेद होनेसे उनमें ऐक्य है। किन्तु परिमाणके मेवसे, शकिमान् और शक्तिके भेदसे, संज्ञा और संख्याके मेदसे, स्वलक्षणके मेदसे और प्रयोजन आदिके भेदसे उनमें नानापन है, सर्वथा नहीं ॥७१-७२।। यहाँ यह कहा गया है कि जब हम गण-पर्यायसे द्रव्यको भिन्न कहते हैं तब परिमाण, लक्षण आदिकी मुख्यतासे ही कहते हैं जो भेदकल्पना करने पर ही सम्भव है। इसी तथ्यको चरणानुयोग शास्त्र इन शब्दोंमें व्यक्त करता है सद्भूतेतरभेदग्यवहारः स्याद् द्विधा भिदुपचारः । गुणगुणिनोरभिदायामपि सद्भूतो विपर्यादितरः ॥ १०४ ॥ अनगार अ० ११०। सद्भूत व्यवहार और असद्भुत व्यवहारके भेदसे व्यवहार दो प्रकारका है। गुण-गुणीमें अभेद होने पर भी भेदोपचार सद्भूत व्यवहार है और दो द्रव्योंमें सत्ताभेद होने पर भी अभेदरूपसे उपचार असद्भूत व्यवहार है। यहाँ 'भिदुपचारः' पदका अर्थ भेदकल्पना किया गया है। असद्भूत व्यवहारमे तो विकल्पकी मुख्यता है ही। इससे मालूम पड़ता है कि ये दोनो नय एकमात्र विकल्पको आधार बना कर ही कहे गये हैं जो स्वात्मस्वरूपके भानमे किसी भी प्रकारसे उपयोगी नहीं है। इसीसे आत्माके निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप होनेमें एकाग्ररूपसे आत्मानुभूति मुख्यतया स्वीकार की गई है। इसी तथ्यको कलश काव्यमें इन शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है। यथा आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्प-विकल्पजालं प्रकाशयन् शुखमयोऽभ्युदेति ॥ १०॥ जो परद्रव्य, परभाव तथा परको निमित्त कर हए विभाव भाव इस प्रकार समस्त परभावोंसे भिन्न है, आपूर्ण है अर्थात् अपने गुण-पर्यायोंमें व्याप्त कर अवस्थित है, आदि और अन्तसे रहित है, एक है अर्थात चिन्मात्र आकारके कारण क्रम और अक्रमरूप प्रवर्तमान समस्त ब्यावहारिक भावोंसे भेदरूप नहीं होता तथा जिसमें समस्त संकल्प और विकल्पोंका समूह विलयको प्राप्त हो गया है ऐसे आत्मस्वभावको प्रकाशित करता हुआ शुद्धनम उदित होता है ।। १०।।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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