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________________ जैनतत्त्वमीमांसा २९८ ९ निश्चयनयका स्वरूपनिरूपण अभेदानुपचारया वस्तु निश्चीयते इति निश्चयः । आलापप० अभेदरूपसे और अनुपचाररूपसे वस्तुका निश्चय करना निश्चयनय है । 'अभेदरूपसे निश्चय करना' इसका अर्थ है कि गुण पर्यायका भेद किये बिना वस्तुके स्वरूपको समझना । तथा 'अनुपचाररूपसे निश्चय करना' इसका अर्थ है कि बाह्य अभ्यन्तर उपाधिसे शून्य 'वस्तुस्वरूपको जानना ।' इसे स्पष्ट करते हुए नयचक्रमें यह वचन आया है गेह्वइ दम्वसहावं असुद्ध सुद्धोवयारपरिचत्त । सो परमभावगाही णायन्यो सिद्धिकामेण ॥। १९८ ।। पृ० १०९ । जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचारस्वभावसे रहित परमभावरूप द्रव्यके स्वभावको ग्रहण करता है ( ध्येयरूपसे स्वीकारता है ) सिद्धिके इच्छुक जीव द्वारा वह परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय जानने योग्य है || १९८|| इस प्रकार हम देखते हैं कि नयचक्रके उक्त वचन द्वारा निश्चयनयके स्वरूपपर ही प्रकाश डाला गया है । उक्त गाथामें आया हुआ 'सिद्धिकामेण' पद ध्यान देने योग्य है । इस पदद्वारा यह सूचित किया गया है कि जो पुरुष आत्मसिद्धिके इच्छुक है उन्हे एकमात्र इस नयका विषय ही ध्येय बनाने योग्य है । किन्तु इस नयके विषयको ध्येय बनाना तभी सम्भव है जब इस जीवकी दृष्टि न तो सम्यग्यर्शनादिरूप शुद्धपर्यायपर रहती है, न रागादि, मनुष्यादि और मतिज्ञानादिरूप अशुद्ध अवस्थापर रहती है और न ही अतिरिक्त अन्य पदार्थोपर रहती है । इस निश्चयनयके विषयभूत आत्माके स्वरूपका निरूपण करते अनगारधर्मामृत में यह वचन आया है हुए सर्वेऽपि शुद्ध बुद्ध स्वभावाश्चेतना इति । शुद्धोऽशुद्धश्च रागाद्या एवात्मेत्यस्ति निश्चय ॥१- १०३ ॥ सभी जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाववाले है यह शुद्ध निश्चयनय है तथा राग-द्वेष आदिरूप मानना अशुद्ध निश्चयनय है ।। १-१०३॥ यहाँ जिसे अशुद्ध निश्चयनयका विषय कहा गया है वह अध्यात्ममें असद्भूतव्यवहारनयका विषय है यह आगे स्पष्ट करेंगे, क्योकि मोक्षमार्गमें ध्येय एकमात्र शुद्ध निश्चयनयका विषय ही होता है इस तथ्यका
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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