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________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा । २९७ संक्रम अनुयोगदार)। इसके सिवाय अध्यात्म आमममें व्यवहृत होनेवाली एक नयपद्धति और है बो मोक्षमार्गकी प्ररूपणामें मुख्य है। तात्पर्य यह है कि जहाँपर शब्द व्यवहारको मुख्यतासे या उसकी मुख्यता किये विना उपचरित और अनुपचरित कथनको समान भावसे स्वीकार करके द्रव्य, गुण और पर्यायकी दृष्टिसे सब पदार्थोके भेदाभेदका विचार किया जाता है। वहाँपर वैसा विचार करनेके लिये नेगमादि नयोंकी पद्धति स्वीकार की गई है। किन्तु जहाँपर आत्मसिद्धिय प्रयोजनीय दृष्टि सम्पादित करनेके लिये उपयोगिता और अनुपयोगिताको दृष्टिसे विचार किया जाता है वहाँपर दूसरे प्रकारसे नयदृष्टि स्वीकार की गई है। प्रकृतमें इस नयपद्धतिको मीमांसा करना मुख्य प्रयोजन होनेसे इसकी अपेक्षा विचार किया जाता है। इसका उल्लेख करते हुए नयचक्रमें लिखा है णिच्छय-वहारणया भूलिमभेया गयाण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेऊ पज्जय-दव्वत्थियं मुणह ।।१८३।। पृ० १०४ । निश्चयनय और व्यवहारनय ये दोनों सब नयोंके मूल भेद हैं। पर्यायार्थिक नय और द्रव्यार्थिकनयको निश्चयकी सिद्धिका हेत जानो ॥१८२।। नयचक्रमें सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनयको निश्चयनयकी सिद्धिका हेतु कहा गया है सो इसका भी वही अर्थ है जो पूर्वोक्त गाथामें कहा गया है। इसी तथ्यका निर्देश करते हुए नयचक्रमें यह गाथा उपलब्ध होती है णो ववहारेण विणा णिच्छयसिद्धी कया वि णिहिट्टा। साहणहेऊ जम्हा तस्स य सो भणिय ववहारो ॥२९६॥ पृ० १४५ । व्यवहारके विना कदाचित् भी निश्चयकी सिद्धि नहीं होती, इसलिये जो निश्चयको सिद्धिका हेत है वह व्यवहार कहा गया है ॥२९६।। यहाँ उक्त कथन द्वारा द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकरूप नैगमादिक सात नयो और उनके भेद-प्रभेदोंको व्यवहार कहकर उसे निश्चयकी सिद्धिका हेतु कहा गया है सो इसका यह तात्पर्य है कि जिसने नंगमादिनयों द्वारा आगमके अनुसार वस्तुका यथार्थ निर्णय कर लिया है वही माल्मस्वरूपके निर्णयपूर्वक उसे प्राप्त करनेका अधिकारी होता है। इसलिये प्रकृतमें निश्चयनय और व्यवहारनयका क्या अर्थ है इसपर आगमके अनुसार विचार किया जाता है
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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