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________________ २९० जैनतत्त्वमीमांसा 1 इसलिये उन्हे उत्पाद व्ययरूप कहा गया है । ये दोनों लक्षण प्रत्येक द्रव्यमे घटित होते है, इसलिये ये द्रव्यके सामान्य लक्षण हैं। छह द्रव्योंको जो अलग-अलग कहा गया है सो उनके पृथक्-पृथक् लक्षण होनेसे ही पृथक्पृथक् कहा गया है । जैसे जीवका विशेष लक्षण उपयोग है । यह जिनमें पाया जाता है वे सब जीव कहलाते हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पुद्गल का विशेष लक्षण है । यह जिनमे पाया जाता है वे सब पुद्गल कहलाते हैं । गतिहेतुत्व धर्मद्रव्यका विशेष लक्षण है । यह जिसमें पाया जाता है वह धर्मद्रव्य कहलाता है। स्थितिहेतुत्व अधर्मद्रव्यका विशेष लक्षण है । यह जिसमे पाया जाता है वह अधर्मद्रव्य कहलाता है । अवगाहनहेतुत्व आकाश द्रव्यका विशेष लक्षण है । यह जिसमे पाया जाता है वह आकाशद्रव्य कहलाता है तथा परिणमनहेतुत्व कालद्रव्यका विशेष लक्षण है । यह जिनमें पाया जाता है वे कालद्रव्य कहलाते है । इस प्रकार जातिकी अपेक्षा कुल द्रव्य छह है यह सिद्ध होता है । ४ गुणका स्वरूप और मेद यावद्द्रव्यभावी त्रिकाली शक्ति विशेषका नाम गुण है । प्रत्येक द्रव्यमें ये अनन्त होते हैं । कहीं-कही इन्हे शक्तिशब्द द्वारा भी अभिहित किया गया है । समानजातीय द्रव्योमें गुण समान होते हैं और भिन्न जातीय द्रव्यों में ये समान भी होते हैं और भिन्न भी होते हैं । ५ पर्यायका स्वरूप पर्यायकी दृष्टि से विचार करने पर यावद्द्रव्यभावी प्रति समय अन्यअन्य होनेवाली अवस्थाका नाम पर्याय है । द्रव्यपर्याय और गुणपर्यायके भेदसे पर्यायें दो प्रकारकी होती है। इन्हे क्रमश व्यञ्जनपर्याय और पर्याय भी कहते हैं । ये दोनों प्रत्येक विभावपर्याय और स्वभावपर्याय के भेद से दो-दो प्रकारकी होती हैं। विभावपर्यायको सयोगीपर्याय और स्वभाव पर्यायको असयोगीपर्याय भी कहते हैं। संयोगी पर्यायें मात्र संसारी जोवो और पुद्गल स्कन्धोमे ही होती हैं। जीवोंकी अपेक्षा जो आत्मीय पदार्थ नहीं है अहकार और ममकाररूपसे उनमे आत्मभावका होना संयोग है । जैसे-जैसे यह भाव विलयको प्राप्त होता जाता है वैसेवैसे जीवोंक स्वभाव पर्यायोका उदय होने लग कर वह सब प्रकारके सयोगसे क्रमश मुक्त होता जाता है। पुद्गलोंमें स्पर्शगुणकी विशेष पर्याय ही सयोग है । जीवोमें अपना अपराध ही संयोगका हेतु है तथा पुद्गलों में स्पर्शगुणकी विशेष पर्याय ही संयोगका हेतु है । जीवमें कोई दूसरा द्रव्य Į
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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