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________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा गुण-पर्ययके भेदसे भेदरूप व्यवहार । द्रव्यदृष्टिसे देखिये एकरूप निरषार ।। होता परके योगसे असत् रूप व्यवहार । दृष्टि फिरे निश्चय लखे एकरूप अविकार ।। १ उपोद्धात मुख्य सो निश्चय गौणसो व्यवहार इस नियमके अनुसार प्रकृतमें हमें मोक्षमार्गकी दृष्टिसे निश्चय-व्यवहारके निर्णयके साथ उनको विषय करनेवाले नयोंका भी विचार करना है। २ द्रव्य, गुण, पर्यामनिर्देश सामान्यसे सब द्रव्य छह हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल। विशेषकी अपेक्षा विचार करनेपर जीव द्रव्य अनन्त हैं, पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं तथा कालद्रव्य लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर असख्यात हैं। ये सब द्रव्य स्वत सिद्ध और अनादि-अनन्त हैं। स्वरूपकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यकी जो मर्यादा है स्वभावसे ही वे उसका उल्लंघनकर अन्यरूप नहीं होते, इसलिये स्वभावसे ही स्वप्रतिष्ठ होनेके कारण वे परनिरपेक्ष होकर ही अवस्थित है। जो जितने और जिस रूपमें हैं वे सदाकाल उतने और उस रूपमें बने रहते हैं। न तो वे अपने त्रिकाली स्वभावको ही बदलते हैं और न ही न्यूनाधिक होते हैं। ३. लक्षणको दृष्टिसे द्रव्यविचार और उनके भेद ___ लक्षणकी दृष्टि से विचार करनेपर जो गुण-पर्यायवाला हो वह द्रव्य है। एक लक्षण तो यह है और दूसरा लक्षण है जो उत्पाद-व्यय-ध्रवस्वभाववाला हो वह द्रव्य है। इन दोनों लक्षणों द्वारा द्रव्यके स्वरूपसामान्य पर प्रकाश पड़ता है. इसलिये इनमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि उत्पाद-व्यय द्वारा पर्यायकी अभिव्यक्ति होती है और प्रौव्यद्वारा गुणकी अभिव्यक्ति होती है । गुण अन्वयस्वभाववाले होते हैं, इसलिये उन्हें ध्रुवस्वरूप कहा गया है तथा पर्याय व्यतिरेक स्वभाववाली होती हैं,
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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